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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-४
राजर्षि दशार्णभद्र ५८.दसन्नभदो राया। निवेइयं राइणो पउत्तिकहगेहि
जहा देव! भगवं महावीरो समागओ। परितुदो राया। वंदितो तत्थेव भावेण। दिन्नं पारितोसियं।
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चिंतियं चाणेण-अम्हारिसेहिं सारासारविभागवियाणएहिं समग्गसामग्गिएहिं चिंतामणिस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स विसेसेण सविडिढपया काउं जज्जइ त्ति. ता कल्लं सविडिढए तहा वंदिस्सं भयवं जहा न केणइ वंदियपुव्यो। बीयदिवसे पहायसमए य कयगोसकिच्चो, ण्हायविलित्तालंकियदेहो उदाररूवजोव्वण-लायन्नने- वत्येण पंचसइकेणाऽवरोहेण सलिं, मंडिया- लंकियाए चाउरंगिणीए सेणाए परिगओ। पवर- जाणारूढेहिं बहुहिं सामंत-मंति-सेदिठ-सत्थवाह- पउरजणसहस्सेहिं अण्णिज्जमाणो। भंभाभेरिमाइ आउज्जरवबहिरियदिगंतरो, पढंतेहिं मागहेहिं गायंतेहिं गंधव्विएहिं नच्चंतीहिं विलासिणीहिं गओ भगवतो वंदणत्थं। विसुज्झमाणभावेण वंदितो भयवं। कयत्थो म्हि त्ति हरिसिओ राया।
राजा दशार्णभद्र। एक दिन प्रवृत्तिवादकों (सूचनाकारों) ने राजा से निवेदन किया-देव! भगवान महावीर दशार्णपुर नगर में पधारे हैं। संवाद सुन राजा परितुष्ट हुआ। वहीं से भावपूर्ण वंदना की। प्रवृत्तिवादकों को पारितोषिक दिया।
राजा ने सोचा-सार-असार का विवेक करने वाले, . समग्र साधनों से सम्पन्न हम जैसे लोगों के लिए यह उचित है कि त्रिभुवन चिंतामणि श्रमण भगवान महावीर की विशिष्ट ऋद्धि के साथ वंदना करें। कल मैं अपनी समस्त ऋद्धि के साथ वैसी वंदना करूंगा, जैसी आज तक किसी ने नहीं की है।
दूसरा दिन। प्रभात का समय। प्राभातिक कृत्य से निवृत्त हो स्नान, विलेपन कर शरीर को अलंकृत किया। उसके साथ रूप, यौवन और लावण्य से युक्त सुन्दर वेशभूषावाली पांच सौ रानियां थीं। सुसज्जित चतुरंगिणी सेना थी। प्रवर यानों पर आरूढ़ बहुत से सामंत, मंत्री, श्रेष्ठी, सार्थवाह और हजारों पौरजन उसकी अगवानी कर रहे थे। भंभा, भेरी, आतोद्य आदि के शब्दों से दिशाएं बधिर बन रही थीं। मागध मंगलपाठ कर रहे थे। गान्धर्विक गा रहे थे। नृत्यांगनाएं नाच रही थीं। दशार्णभद्र ऐसी ऋद्धि के साथ भगवान महावीर को वंदन करने के । लिए गया। विशुद्धभावों से प्रभु को वंदन कर उसने कृतार्थता का अनुभव किया। हर्षित हुआ।
इत्यंतरे सक्केण चिंतियं महापुरिसो दसण्णभदो शक्र ने उस समय चिंतन किया-महापुरुष दशार्णभद्र पडिबुझिस्सइ इमिणा वइयरेण, अतो महाविभूईए इस घटना से प्रतिबुद्ध होगा। अतः मैं महान विभूति के वंदामि भयवंतं।
साथ भगवान महावीर को वंदना करूं। विउब्बिया एरावए अट्ठदंता, दंते दंते अट्ठ पो- शक्र ने एक एरावत का निर्माण किया। उसके आठ क्खरणीतो, पुक्खरणीए पुक्खरणीए अट्ठ पउमा, दांत थे। प्रत्येक दांत में आठ-आठ पुष्करणियां। प्रत्येक पउमे पउमे अट्ठ पत्ता, पत्ते पत्ते अट्ठ बतीसबछा पुष्करणी में आठ-आठ कमल। प्रत्येक कमल के आठरासपेक्खणा। एवं विभूईए एरावणं पयाहिणेऊण आठ पत्र और पत्र-पत्र पर बत्तीसविध नाटकवाली आठवंदितो भयवं देविदेण।
आठ रासप्रेक्षाएं। इस विभूति के साथ ऐरावत को दाहिनी
ओर रखकर देवेन्द्र ने भगवान की वंदना की। तं दतॄण चिंतियं दसण्णभइणं-अहो! खलु दशाणभद्र ने उसे देखकर सोचा-अहो! मैं कितना तुच्छोऽहं जेण इमीए वि तुच्छाए सिरीए गव्वो तुच्छ हूं। मैंने अपनी अल्प ऋद्धि पर गर्व किया अथवा कओ।
ऐसा होता ही है