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________________ प्रायोगिक दर्शन ५१३ अ.७ : जिनशासन अहवां अदिट्ठभहा थेणेव वि हुंति उत्तुणाणीया। जिन्होंने बहुत समृद्धि नहीं देखी है, वे थोड़े में गर्वोन्नत णच्चइ उत्तालकरो हु मूसगो विहिमासज्न॥ हो जाते हैं, जैसे चूहा चावलों को देख उछल-कूद करता हुआ नाचने लगता है। कओ अणेण सुद्धधम्मो तेण एरिसा रिद्धी। ता इसने (इन्द्र ने) शुद्ध धर्म की आराधना की थी, अहं पि तं चेव करेमि, किमेत्थ विसाएणं? इच्चाइ- जिससे इसे ऐसी ऋद्धि मिली है। अतः मैं भी शुद्ध धर्म की संवेगमावणाए पडिबुद्धो। खओवसममुवगयं आराधना करूं। विषाद करने से क्या होगा, इस प्रकार चारित्तमोहणीयं भणियं च तेण-भयवं! वह संवेगभावना (मुमुक्षु भाव) से प्रतिबुद्ध हो गया। निविण्णोऽहं भवचारगतो। ता करेह मे चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम हुआ। उसने निवेदन वयप्पयाणेणाऽणुग्गहं ति। किया-भगवन् ! मैं भवभ्रमण से निर्विण्ण हो गया हूं। अतः आप मुझ पर व्रतप्रदान करने का अनुग्रह करें। दिक्खितो य भयवया। वंदितो सक्केण, पसंसितो भगवान ने उसे दीक्षित किया। शक्र ने उसकी वंदना य-धन्नो कयत्थो तुमं जेणेरिसा रिद्धी सहसच्चिय की और प्रशंसा के स्वर में बोला-आप धन्य हैं। कृतार्थ परिचत्ता य नियपइन्ना तुमे। . हो गए हैं, जिन्होंने इस प्रकार की ऋद्धि का सहसा परित्याग कर दिया है। आपने अपनी प्रतिज्ञा को सत्यापित कर दिया है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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