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आत्मा का दर्शन
खण्ड-२
असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और उस अवधिज्ञान से मुझे (महावीर) देखा।
चमर के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ-महावीर की शरण लेकर देवेन्द्र, देवराज शक्र की मेरे लिए आशातना करना श्रेयस्कर है।
चमर शय्या से उठा देवदूष्य धारण किया। सुधर्मासभा में चोपाल नाम के शस्त्रागार में आया। परिघरत्न (मुद्गर) को हाथ में लिया। अकेला ही अमर्ष से भरा हुआ चमरचंचा राजधानी से निकला।
असुरिंदे असुरराया। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कटु उसिणे उसिणब्भूए जाए यावि होत्था। तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ममं ओहिणा आभोएइ। इमेयारूवे...... मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्थाते सेयं खल मे समणं भगवं महावीरं णीसाए सक्कं देविंदं देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ।
सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, अब्भुठेत्ता देवदूसं परिहेइ, परिहत्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता फलिहरयणं परामुसइ, एगे अबीए फलिहरयणमायाए महया अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छइ। जेणेव तिगिछिकूडे उप्पायपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता वेउब्वियसमुग्याएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता जाव उत्तरखेउब्वियं रूवं विकुव्वइ विकुव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए....... दिव्वाए देवगईए..... जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ। ममं तिक्खुत्तो आयाणि-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता-नमंसित्ता एवं वयासीइच्छामि णं भंते। तुम्भं नीसाए सक्कं देविंद देवरायं सयमेव अच्चासाइत्तए त्ति कटु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमेइ। वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ....एगं महं घोरं घोरागार......जोयणसयसाहस्सीयं महाबोंदिं विउव्वइ, विउव्वित्ता अप्फोडेइ वग्गइ गज्जइ....
तिगिच्छकूट नाम के उत्पाद पर्वत पर आया। वैक्रिय समुद्घात किया। उत्तरवैक्रिय रूप का निर्माण किया। तीव्र दिव्य देव गति से मेरे पास आया।
दायीं से दायीं ओर तक तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन-नमस्कार किया और बोला-,
भंते ! मैं आपकी शरण लेकर देवेन्द्र, देवराज शक्र को हीन करना चाहता हूं। ऐसा कह असुरराज चमर ईशानकोण में गया।
वैक्रिय समुद्घात किया और घोर आकार वाले, एक लाख योजन की अवगाहना वाले महाशरीर का निर्माण किया। हाथों को आकाश में उछालता हुआ कूदा, गर्जन
किया।
महया-महया सहेण कलकलवं करेइ एगे अबीए फलिहरयणमायाए उड्ढे वेहासं उप्पइए-खोभंते चेव अहेलोयं कंपेमाणे व मेइणीतलं साकड्ढंते व तिरियलोयं, फोडेमाणे व अंबरतलं.....
___जोर-जोर से आवाज करते हुए, परिघरत्न को हाथ में ले अकेले ही आकाश की उड़ान भरी। ऐसा लग रहा था, मानो अधोलोक को क्षुब्ध कर रहा है। भूमितल को कंपित कर रहा है। तिरछे लोक को खींच रहा है, और अंबरतल का स्फोटन कर रहा है।
परिघरत्न को उछालता हुआ वह सौधर्मकल्प के सौधर्मावतंसक विमान में जहां सुधर्मा सभा है, वहां गया।
फलिहरयणं अंबरतलंसि वियट्टमाणेवियट्टमाणे......दिव्वाए देवगईए.....जेणेव सोहम्मे