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उद्भव और विकास
अ.२: साधना और निष्पत्ति
एक पांव को पद्मवर वेदिका पर रखा। दूसरे पांव को सुधर्मा सभा में रखा और उच्चस्वर के साथ तीन बार परिघरत्न से इन्द्रकील पर प्रहार करता हुआ बोला
कहां है वह देवेन्द्र, देवराज शक्र ? वे चोरासी हजार सामानिक देव?
वे तेतीस त्रायश्त्रिंशक देव ? वे चार लोकपाल ? वे सपरिवार आठ पटरानियां ? वे तीन परिषद् ? वे सात सेनाएं ?
वे सात सेनापति? तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देव? वे करोड़ों अप्सराएं?
. कप्पे, जेणेव सोम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ। एगं पायं पउमवरवेझ्याए करेइ, एगं पायं सभाए सुहम्माए करेइ, फलिहरयणेणं महया-महया सहेणं तिक्खुत्तो इंदकीलं आउडेइ, आउडेत्ता एवं वयासी
कहि णं भो! सक्के देविंदे देवराया? कहि णं ताओ चउरासीइसामाणियसाहस्सीओ? कहि णं ते तायत्तीसयतावत्तीसगा? कहि णं ते चत्तारि लोगपाला? कहि णं. ताओ अट्ठ अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ? कहि णं ताओ तिण्णि परिसाओ? कहि णं ते सत्त अणिया? कहि णं ते सत्त अणियाहिवई? कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ?
कहि णं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ? . अज्ज हणामि, अज्ज महेमि, अज्ज वहेमि, अज्ज
ममं अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु त्ति कटु तं अणिठं अकंतं अम्पियं असुभं अमणुण्णं
अमणामं फरुसं गिरं निसिरइ। 'तए णं से सक्के देविदे देवराया तं अणिळं अकंतं :: अप्पियं असुभं अमणुण्णं अमणामं अस्सुयपुव्वं
फरुसं गिरं सोचा निसम्म आसुरुत्ते....तिलवयं भिउडिं निडाले साहटु चमरं असुरिंद असुररायं एवं वदासिहं. भो! चमरा! असुरिंदा! असुरराया! अपत्थियपत्थया! अज्ज न भवसि, नाहि ते सुहमत्वीति कटु तत्व सीहासणवरगए वज्जं परामुसइ, परामुसित्ता तं जलंतं फुडतं....चमरस्स
असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जं निसिरइ। - तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया तं जलंतं जाव भयंकरं वज्जमभिमुहं आवयमाणं पासइ, ......तहेव उड्ढपाए अहोसिरे.... ताए उक्किट्ठाए....जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ। भीए भयगम्गरसरे भगवं सरणं इति वुयमाणे मम दोण्ह वि पायाणं अंतरंसि झत्ति वेगेणं समोवडिए।
आज मैं उनको मारूंगा, मधुंगा, व्यथित करूंगा और जो अप्सराएं मेरे अधीन नहीं हैं, उन्हें मेरे वश में कर लूंगा। इस प्रकार अनिष्ट और अप्रिय वचन बोला।
देवेन्द्र, देवराज शक्र उस अनिष्ट, अकांत, अप्रिय और अश्रुतपूर्व कठोर वचन को सुन आवेश में आ गया। ललाट पर तीन रेखाओं वाली भृकुटि को चढ़ाकर असुरराज चमर से बोला
हे अप्रार्थनीय को चाहने वाला चमर! आज तू नहीं बचेगा। अब तुझे सुख नहीं होगा। ऐसा कह वहीं सिंहासन पर बैठे-बैठे वज्र को हाथ में उठाया और जाज्वल्यमान, विस्फोटक वज्र को चमर का वध करने के लिए फेंका।
असुरराज चमर ने जाज्वल्यमान वज्र को सामने आते हुए देखा। देखते ही ऊपर पांव और नीचे सिर किए दौड़ा। तीव्र दिव्य देवगति से जहां बैठा था, वहां आया।
भयाक्रांत स्वर से 'भगवन् ! आप शरण हैं'-ऐसा कह सूक्ष्म रूप बनाकर मेरे दोनों पांवों के बीच शीघ्र ही अतिवेग से गिर गया।
देवेन्द्र, देवराज शक्र को ऐसा मनोगत संकल्प उत्पन्न
तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो