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खण्ड-२
आत्मा का दर्शन इमेयारूवे.....मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था
नो खुल पभू चमरे असुरिंदे असुरराया.....अप्पणो निस्साए उड्ढे उप्पइत्ता जावे सोहम्मो कप्पो। नण्णत्थ अरहते वा अरहंतचेइयाणि वा, अणगारे वा भाविअप्पाणो नीसाए उड्ढे उप्पयइ जाव सोहम्मो कप्पो। तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए त्ति कटु ओहिं पउंजइ, ममं ओहिणा आभोएहि।
हुआ
असुरराज चमर समर्थ नहीं है कि अपनी निश्रा से ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक आए।
वह अर्हत् अर्हत् चैत्य अथवा भावितात्मा अनगार की शरण लिए बिना ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक नहीं आ सकता।
अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने तथारूप अर्हत् भगवान् और अनगारों की अति आशातना की है। यह सोच देवराज शक्र ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया और मुझे देखा।
मुझे देखते ही हा! हा! हतोऽस्मि-अहो ! मैं मारा गया ऐसा कहकर तीव्र दिव्य देव गति से वज्र की वीथि का अनुगमन करता हुआ मेरे पास आया। मुझ से चार अंगुल की दूरी पर रहे वज्र को पकड़ा।
गौतम! इन्द्र की मुट्ठी से उठी हुई हवा के कारण मेरे केशाग्र प्रकंपित हो गए।
देवराज शक्र ने वज्र को पकड़ कर दायीं से दायीं ओर तक तीन बार मेरी प्रदक्षिणा की। वंदन-नमस्कार किया और बोला
हा! हा! अहो! हतो अहमंसित्ति कटु ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्वाए देवगईए वज्जस्स वीहिं अणुवगच्छमाणे-अणुगच्छमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ममं चउरंगुलम- संपत्तं वज्जं पडिसाहरइ।
अवि याइं मे गोयमा! मुठिवाएणं केसग्गे वीइत्था। तए णं से सक्के देविदे देवराया वजं पडिसाहरित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासीएवं खलु भंते! अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिदेणं असुररण्णा सयमेव अच्चासाइए। तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निसठे। तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरिहति णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवं करणयाए त्ति कटु ममं वंदइ-नमसइ। वंदित्ता-नमंसित्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ। वामेणं पादेणं तिक्खुत्तो भूमिं विदलेइ, विदलेत्ता चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वदासिमुक्कोसि णं भो चमरा! असुरिंदा! असुरराया! समणस्स भगवओ महावीरस्स पंभावेणं-नाहि ते दाणिं ममातो भयमत्थि त्ति कटु जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
भंते! चमर ने आपकी शरण से स्वयं ही मेरी अति आशातना की, तब मैंने कुपित होकर चमर का वध करने के लिए वज्र फेंका।
देवानुप्रिय! मैं आपसे क्षमा चाहता हूं। आप मुझे क्षमा करें। ऐसा कह मुझे वंदन-नमस्कार कर शक्र ईशानकोण में गया। वहां दायें पांव से तीन बार भूमि का विदलन कर असुरराज चमर से बोला
हे असुरराज चमर! श्रमण भगवान महावीर के प्रभाव से अब तुम मुक्त हो गए हो। इस समय तुमको मुझ से भय नहीं है। ऐसा कह देवराज शक जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया।
१०९. पच्छा भोगपुरं एति। तत्थ माहिंदो णाम
महावीर भोजपुर गए। वहां महेन्द्र नाम का क्षत्रिय था।