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________________ उद्भव और विकास पुच्छति। णाणं च वागरेति । ७९ १०८. पच्छा सुंसुमारपुरं एति । तत्थ चमरो उप्पतति । चमरेन्द्र का उत्पात तए णं से चमरे असुरिदे असुरराया पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गए समाणे उड्ढं वीससाए ओहिणा आभोएइ जाव सोहम्मो कप्पो, पासइ य तत्थ - दाहिणड्ढलोग़ाहिव ....... सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंस विमाणे सभाए सुहम्माए सक्कंसि सीहासांसि जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणं पासइ । इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए समुपज्जा - स णं एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हिरिसिरिपरिवज्जिए हीणपुण्णचाउइसे जं णं ममं इमाए एयारूवाए दिव्वाए देविड्ढीए...... लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए उप्पिं अप्पुस्सुए दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरs - एवं संपेes | सामाणियपरिसोववण्णए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-केस णं एस देवाणुप्पिया ! अपत्थियपत्थर जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ? अ. २ : साधना और निष्पत्ति वन्दना की, महिमा की, कुशल पूछा और अपने ज्ञान के आधार पर बताया कि आपको शीघ्र कैवल्य होगा । महावीर सुंसुमार गए। वहां चमरेन्द्र आया। असुरेन्द्र, असुरराज चमर ने पांच पर्यप्तियों से पर्याप्त हो, अपने स्वाभाविक अवधिज्ञान से ऊर्ध्वलोक में सौधर्मकल्प तक देखा । सौधर्मकल्प में उसने देवेन्द्र, देवराज शक्र को देखा। वह सौधर्मकल्प के सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा के शक्र नाम के सिंहासन पर दिव्य भोगों को भोग रहा था। तणं. से सामाणियपरिसोववण्णगा देवा चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया ।.... करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अजलिं कटु जएणं विजएणं वद्भावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी एस णं देवाप्पिया ! सक्के देविंदे देवराया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । तर ण से चमरे असुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमठ्ठे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते.....ते सामाणियपरिसोववण्णगे देवे एवं वयासी- अण्णे खलु भो ! से सक्के देविंदे देवराया, अण्णे खलु भो ! से चमरे असुरिंदे असुरराया। महिड्ढीए खलु भो ! से सक्के देविंदे देवराया, अप्पिढिए खलु भो ! से चमरे उसे देख असुरेन्द्र चमर के मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ यह कौन है अप्रार्थनीय को चाहने वाला, दुःखद अंत और अमनोज्ञ लक्षण वाला, लज्जा और शोभा से रहित, हीन पुण्य चतुर्दशी को जन्मा हुआ जो इस प्रकार की दिव्य ऋद्धि के प्राप्त होने पर भी मेरे सिर पर बैठा हुआ बड़े धैर्य के साथ दिव्य भोग भोग रहा है। असुरेन्द्र ने सामानिक परिषद् में उपपन्न देवों को आमन्त्रित किया और कहा- देवानुप्रिय ! यह कौन है अप्रार्थनीय को चाहने वाला जो इस प्रकार दिव्य भोगों को भोग रहा है ? असुरेन्द्र, असुरराज के ऐसा कहने पर सामानिक परिषद् में उपपन्न देव हृष्ट, तुष्ट और आनंदित चित्त हुए । वे बद्धाञ्जलि को मस्तक पर टिका कर असुरेन्द्र का जय-विजय ध्वनि से वर्धापन कर बोले- देवानुप्रिय ! यह देवेन्द्र, देवराज शक्र है जो दिव्य भोग भोग रहा है। असुरराज चमर सामानिक देवों की बात सुन आवेश में आ गया। सामानिक देवों से बोला- देवानुप्रिय ! वह देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य है। हमारा विरोधी है। यह असुरराज चमर अन्य है, उसका विरोधी है। देवराज शक्र महर्द्धिक और यह असुरराज चमर अल्प ऋद्धिवाला है। इसलिए मैं देवेन्द्र, देवराज शक्र को हीन करना चाहता हूं, ऐसा कह चमर तप्त हो गया ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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