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________________ आत्मा का दर्शन ५३४ खण्ड-४ हंता चिट्ठति। हां, हो जाती है। अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता यदि कोई पुरुष उस नौका के आश्रव द्वारों को चारों आसवदाराइं पिहेइ, पिहेत्ता नावाउस्सिंचणएणं ओर से रोक दे, उन्हें रोककर उत्सेचन द्वारा नौका के उदयं उस्सिंचेज्जा, से नूणं मंडियपुत्ता! सा नावा जल को उलीच दे, मंडितपुत्र ! क्या वह नौका उस पानी . तंसि उदयंसि उस्सितंसि समाणंसि खिप्पामेव के बाहर निकल जाने पर शीघ्र ही ऊपर आ जाती है? उदाइ? हंता उदाइ। हां, आ जाती है। एयामेव मंडियापुत्ता! अत्तत्ता-संवुडस्स अणगार- मंडितपुत्र ! इसी प्रकार जो अनगार आत्मना संवृत है, स्स इरियासमियस्स भासासमियस्स एसणा- विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक समियस्स आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमियस्स आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्र, पात्र आदि उच्चारपासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठा- को लेता और रखता है, विवेकपूर्वक मल-मूत्र, श्लेष्म, वणियासमियस्स मणसमियस्स वइसमियस्स नाक के मैल, शरीर के गाढ़ मैल. का परिष्ठापन कायसमियस्स मणगुत्तस्स वइगुत्तस्स कायगुत्तस्स (विसर्जन) करता है। मन की संयत प्रवृत्ति करता है, वचन गुत्तस्स गुत्तिंदियस्स गुत्तबंभयारिस्स, आउत्तं- की संयत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संयत प्रवृत्ति करता गच्छमाणस्स चिट्ठमाणस्स निसीयमाणस्स है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, तुयट्टमाणस्स, आउत्तं वत्थपडिग्गह-कंबल- शरीर का निरोध करता है, अपने आपको सुरक्षित रखता पायपुंछणं गेण्हमाणस्स निक्खिवमाणस्स जाव . है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित चक्खुपम्हनिवायमवि वेमाया सुहुमा इरियावहिया रखता है, उसके उपयोगपूर्वक चलते, खड़े रहते, बैठते, किरिया कज्जइ। सोते तथा उपयोगपूर्वक वस्त्र, पात्र, कंबल पादप्रोञ्छन लेते-रखते समय, उन्मेष-निमेष करते समय भी विविध मात्रावाली सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया होती है। सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, बितियसमयवेड्या वह प्रथम समय में बद्ध, स्पृष्ट होती है, दूसरे समय ततियसमयनिज्जरिया। सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया में उसका वेदन होता है, तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो वेइया निज्जिण्णा सेयकाले अकम्मं वावि भवति। जाती है। वह बद्ध, स्पृष्ट, उदीरित, वेदित, निर्जीर्ण तथा अगले समय में अकर्म भी हो जाती है। से तेणठेणं मंडियपुत्ता! एवं वुच्चइ-जावं च णं से मंडितपुत्र! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है जब जीव जीवे सया समितं नो एयति नो वेयति नो चलति नो सदा, प्रतिक्षण, एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, घट्टन, फंदइ नो घट्टइ नो खुब्भइ ना उदीरइ नो तं तं भावं क्षोभ और उदीरणा को प्राप्त नहीं होता तथा उस-उस भाव परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते में परिणत नहीं होता, तब उस जीव के अंतिम समय में अंतकिरिया भवइ। अंतक्रिया होती है। त्रिगुप्ति साधना १८.एगग्गमणसन्निवेसणयाए णं भंते! जीवे किं भंते! एक आलंबन पर मन को स्थापित करने से जणयइ? जीव क्या प्राप्त करता है? एगग्गमणसन्निवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ। ___ एक आलंबन पर मन को स्थापित करने से जीव चित्त का निरोध करता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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