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________________ प्रायोगिक दर्शन १९. मणगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ । एगग्गचित्ते जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । ५३५ २०. वइगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? गुत्तयाए णं निव्वियारं जणय । निव्वियारेणं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते यावि भवइ । २१. कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ । संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ । स्थविर और वैश्यपुत्र कालास २२. ते काले तेणं समएणं पासावच्चिज्जे कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते एवं बयासी थेरा सामाइयं न याणंति, थेरा सामाइयस्स अट्ठ न याणंति । धेरा पच्चक्खाणं न याणंति, थेरा पच्चक्खाणस्स अठ्ठे न याति । धेरा संजम न याणंति, थेरा संजमस्स अट्ठ न याणंति । थे संवरं न याणंति, थेरा संवरस्स अट्ठ न याणंति । - थेरा विवेगं न याणंति, थेरा विवेगस्स अट्ठ न याणंति । पेरा विउस्सम्गं न याणंति, थेरा विउस्सग्गस्स अळं न याणंति । तप णं थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वदासी जागामो णं अज्जो ! सामाइयं, जाणामो णं अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठं । अ. ९ : धर्म भंते! मनोगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता को प्राप्त करता है। एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ संकल्पों से मन की रक्षा करने वाला और संयम की आराधना करने वाला होता है। भंते! वचनगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? वचनगुप्ति से जीव निर्विचार भाव को प्राप्त करता है। निर्विचार भाव को प्राप्त जीव सर्वथा वाग्गुप्त होता है एवं उसके अध्यात्म-योग सध जाता है। भंते! कायगुप्ति से जीव क्या प्राप्त करता है ? कायगुप्ति से जीव संवर को प्राप्त करता है। संवर के द्वारा कायिक स्थिरता को प्राप्त करता है और वह पापास्रव - पाप कर्म के उपादानों-हेतुओं का निरोध कर देता है। भगवान पार्श्व का परम्परित शिष्य वैश्यपुत्र कालास नामक अनगार स्थविरों के पास आया और बोला आप सामायिक नहीं जानते हैं। सामायिक का अर्थ नहीं जानते हैं। प्रत्याख्यान नहीं जानते हैं। प्रत्याख्यान का अर्थ नहीं जानते हैं। संयम नहीं जानते हैं। संयम का अर्थ नहीं जानते हैं। संवर नहीं जानते हैं। संवर का अर्थ नहीं जानते हैं। विवेक नहीं जानते हैं। विवेक का अर्थ नहीं जानते हैं। व्युत्सर्ग नहीं जानते हैं । व्युत्सर्ग का अर्थ नहीं जानते हैं। स्थविरों ने वैश्यपुत्र कालास अनगार से इस प्रकार कहा आर्य! हम सामायिक जानते हैं। सामायिक का अर्थ जानते हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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