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________________ प्रायोगिक दर्शन ५३३ धर्म के विविध रूप १३. दसविधे धम्मे पण्णत्ते, तं जहा १. गामधम्मे २. णगरधम्मे ३. रट्ठधम्मे ४. पासंडधम्मे ५. कुलधम्मे ६. गणधम्मे ७. संघधम्मे ८. सुयधम्मे ९. चरित्तधम्मे १०. अत्थिकायधम्मे मोक्ष का साधक तत्त्व-संवरयोग १४. पंच संवरदारा पण्णत्ता, तं जहा संमत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं, अजोगित्तं । १५. तिउट्टती उ मेहावी जाणं लोगंसि पावगं । तुति पावकम्माणि णवं कम्ममकुव्वओ ॥ १६. अकुव्वओ णवं णत्थि कम्मं णाम विजाणतो । णच्चाण से महावीरे जे ण जाई ण मिज्जती ॥ भगवान महावीर और मंडितपुत्र १७. से जहानामए हरए सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे बोलट्टमाणे वोसट्टमाणे समभरघडत्ताए चिट्ठति । आहे णं केइ पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं नावं सतासवं सतच्छिदं ओगाहेज्जा, से नूणं मंडित्ता ! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी- आपूरमाणी पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति ? अ. ९ : धर्म १. ग्रामधर्म - गांव की व्यवस्था - आचार परंपरा । २. नगरधर्म - नगर की व्यवस्था । ३. राष्ट्रधर्म - राष्ट्र की व्यवस्था । ४. पाषण्ड धर्म-पाषंडों-श्रमण संप्रदायों का आचार। ५. कुलधर्म–उग्र आदि कुलों का आचार । ६. गणधर्म - गण - राज्यों की व्यवस्था । ७. संघधर्म - गोष्ठियों की व्यवस्था । ८. श्रुतधर्म- ज्ञान की आराधना, द्वादशांगी की आराधना। ९. चारित्र धर्म-संयम की आराधना । १०. अस्तिकाय धर्म - गतिसहायक द्रव्य-धर्मास्तिकाय । संवर के पांच प्रकार हैं सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, अयोग । मेधावी पुरुष लोक में पाप को जानता हुआ उससे मुक्त होता है। वह नए कर्मों के लिए अकर्ता है। उसके पाप कर्म टूट जाते हैं। जो नए कर्मों का कर्त्ता नहीं है, विज्ञाता / द्रष्टा है, उसके नए कर्म का बंधन नहीं होता है। इसे जानकर जो ज्ञाताभाव - चैतन्य के शुद्ध स्वरूप में महापराक्रमशील होता है, वह न जन्म लेता है, न मरता है। वह मुक्त हो जाता है। मंडितपुत्र ने भगवान से जीव की अंतक्रिया के बारे में जिज्ञासा की । भगवान ने एक उदाहरण से उसकी जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा मंडितपुत्र! जैसे कोई ग्रह (नद) जल से भरा हुआ, परिपूर्ण, छलकता हुआ, हिलोरे लेता हुआ, चारों ओर से जलजलाकार हो रहा है। कोई व्यक्ति उस द्रह में एक बहुत बड़ी सैकड़ों आश्रवों और सैकड़ों छिद्रोंवाली नौका उतारे । मंडितपुत्र ! वह नौका उन आश्रव द्वारों के द्वारा जल से भरती हुई परिपूर्ण हो जाती है, भर जाती है ? छलकती हुई, हिलोरे लेती हुई, चारों ओर से जल जलाकार हो जाती है ?
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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