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________________ आत्मा का दर्शन ५३२ खण्ड-४ गरिहेयव्वं विउट्टेयव्वं विसोहेयव्वं अकरणयाए को स्वीकार करना चाहिए या मुझे? अब्भुठेयव्वं अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेयव्वं उदाहु मए? गोयमाइ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित करते वयासी-गोयमा! तुमं चेव णं तस्स ठाणस्स हुए कहा-गौतम! उस कथन की आलोचना तुम्ही करो। आलोएहि..... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म तुम्ही यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार करो पडिवज्जाहि। आणंदं च समणोवासयं एयमठं और उस स्थान के लिए श्रमणोपासक आनंद से खामेहि। क्षमायाचना करो। ' तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महा- श्रमण भगवान महावीर के वचन को गौतम ने वीरस्स तहत्ति एयमझें विणएणं पडिसुणेइ, तहत्ति-ऐसा कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया। उस पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ पडिक्कमइ आलोचनीय स्थान का यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म निंदइ गरिहइ विउट्टइ विसोहइ अकरणयाए स्वीकार किया। श्रमणोपासक आनंद से क्षमायाचना की। अब्भुठेइ अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जइ, आणंदं च समणोवासयं एयमलैं खामेइ। धर्म का द्वितीय द्वार-निर्लोभता ९. मुत्तीए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! मुक्ति/निर्लोभता से जीव क्या प्राप्त करता है? मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ। अकिंचणे य जीवे मुक्ति से वह अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचन अत्थलोलाणं अपत्थणिज्जो भवइ। पुरुष अर्थ-लोलुप व्यक्तियों द्वारा प्रार्थनीय नहीं होता। उसके पास कोई याचना नहीं करता। धर्म का तृतीय द्वार-ऋजुता १०.अज्जवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! ऋजुता से जीव क्या प्राप्त करता है? अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं ऋजुता से वह काया की सरलता, भाव की सरलता, भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायण- भाषा की सरलता और कथनी-करनी की एकरूपता को संपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ। प्राप्त होता है। कथनी-करनी की एकरूपता से जीव धर्म का आराधक होता है। ११.सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो सरल होता है। जो शुद्ध निव्वाणं परं जाइ, घयसित्तव्व पावए। होता है, उसमें धर्म ठहरता है। वह घृत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण (दीप्ति) को प्राप्त होता है। धर्म का चतुर्थ द्वार-मृदुता १२.महवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भंते! मदता से जीव क्या प्राप्त करता है? मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयइ। अणुस्सियत्ते णं मृदुता से वह विनम्र मनोभाव को प्राप्त होता है। विनम्र जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयठाणाइं निवेइ। मनोभाव वाला व्यक्ति मृदु-मार्दव-अंतरंग और बहिरंग मार्दव से सम्पन्न होता है। वह आठ प्रकार के मद स्थानों का विनाश कर देता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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