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________________ प्रायोगिक दर्शन गिमज्झा वसंतस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ ? हंता अस्थि । जइ णं भंते! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, एवं खलु भंते! मम वि गिहिणो गिहिमज्झावसंतस्स ओहिणाणे ५३१ समुपणे पुरत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाई खेत्तं जाणामि पासामि । दक्खिणे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाइं खेत्तं जाणामि पासामि । पच्चत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंचजोयणसयाई खेत्तं जाणामि पासामि । उत्तरे णं जाव चुल्लहिमवंतं वासधपव्वयं जाणामि पासामि उड़ढं जाव सोहम्मं कप्पं जाणामि पासामि । अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुच्चुतं नरयं जाणामि पासामि । तणं से भगवं गोयमे आणंद समणोवासयं एवं वयासी-अत्थि णं आणंदा! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, नो चेव णं एमहालए। तं णं तुमं आणंदा ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि.....अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जाहि । तणं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एवं वयासी-अत्थि णं भंते! जिणवयणे संताणं तच्चाणं तहियाणं सब्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ ..... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जिज्जइ ? नो इट्ठे समट्ठे । जणं भंते! जिणवयणे संताणं तच्चाणं तहियाणं सम्भूयाणं भावाणं नो आलोइज्जइ.... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं नो पडिवज्जिज्जइ, तं णं भंते! तुब्भे चेव एयस्स ठाणस्स आलोएह...... अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं पडिवज्जेह । तणं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए वित्तिगिच्छसमावण्णे आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दूइपलासे चेहए ...... जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए। तं णं भंते! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं पडिक्कमेयव्वं निंदेयव्वं अ. ९ : धर्म अवधिज्ञान (अतीन्द्रियज्ञान) उत्पन्न हो सकता है ? हां, हो सकता है। भंते! यदि गृहस्थ को गृहवास में रहते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो भंते! मुझे गृहवास में रहते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है। मैं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में से प्रत्येक दिशा में लवण समुद्र के पांच सौ योजन पर्यंत क्षेत्र को जानतादेखता हूं। उत्तर दिशा में चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत पर्यंत क्षेत्र को जानता देखता हूं। ऊर्ध्वदिशा में सौधर्मकल्प पर्यंत क्षेत्र को जानता देखता हूं। अधोदिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के लोलुयच्युत नरकावास पर्यंत क्षेत्र को जाता देखता हूं। श्रमणोपासक आनंद के ऐसा कहने पर भगवान गौतम ने कहा- आनंद! गृहस्थ को गृहवास में रहते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, पर इतना बड़ा नहीं । इसलिए आनंद तुम इस कथन की आलोचना करो। यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करो । श्रमणोपासक आनंद ने भगवान गौतम से कहा-भंते! क्या जिनशासन में सत्य, तत्त्व, तथ्य और सद्भूत भावों की आलोचना की जाती है ? उसका यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार किया जाता है ? नहीं । भंते! यदि जिनशासन में सत्य, तत्त्व, तथ्य और सद्भुत भावों की आलोचना नहीं की जाती है, यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार नहीं किया जाता है तो भंते! आप ही इस कथन की आलोचना करें। यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपः कर्म स्वीकार करें। श्रमणोपासक आनंद के ऐसा कहने पर गौतम शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से भर गए । वे तत्काल वहां से चलकर दूतीपलाश चैत्य में श्रमण भगवान महावीर के पास पहुंचे। उन्होंने कहा - भंते! उस आलोचनीय स्थान का यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म श्रमणोपासक आनंद
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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