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आत्मा का दर्शन
खण्ड-४
नो संवसेज्जा, इच्छाए परो उवसमेज्जा, इच्छाए परो नो उवसमेज्जा। जे उवसमइ, तस्स अत्थि आराहणा, जे न उवसमइ, तस्स नत्थि आराहणा। तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं।
जो कलह का उपशमन करता है, उसके आराधना होती है। जो उपशमन नहीं करता उसके आराधना नहीं होती है। इसलिए व्यक्ति अपनी ओर से कलह का उपशमन करे।
भंते! इसका अर्थ क्या है? श्रामण्य का सार है-उपशम।
से किमाहु भंते? उवसमसारं सामण्णं।
धर्म का प्रथम द्वार-क्षांति
६. खंतीए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
खंतीए णं परीसहे जिणइ।
भंते ! शांति सहिष्णुता से जीव क्या प्राप्त करता है?
क्षांति से वह परीषहों-कष्टों एवं कठिनाईयों पर विजय प्राप्त कर लेता है।
७. खामेमि सव्वजीवे सव्वे जीवा खमंतु मे।
मेत्ती मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणई॥ .
- मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। सबके साथ मेरी मैत्री है। किसी के साथ मेरा वैरविरोध नहीं है। शत्रुता नहीं है।
भगवान गौतम और श्रमणोपासक आनंद ८. तए णं से आणदे समणोवासए भगवं गोयमं श्रमणोपासक आनंद ने गौतम को आते हुए देखा।
एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणदिए देखते ही उसका चित्त आह्लाद से भर गया। भगवान पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण- गौतम को वन्दन-नमस्कार कर उसने कहा-भंते! इस हियए भगवं गोयमं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता उदार, विपुल, संयत और स्वीकृत तपःकर्म के कारण मेरा एवं वयासी-एवं खलु भंते! अहं इमेणं ओरालेणं शरीर सूखा, रूखा और मांसरहित हो गया है। मैं हड्डियों विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लु- का ढांचा मात्र रह गया हूं। मेरी हड्डियां कटकट बोल रही क्खे निम्मंसे अठिचम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए है। मैं कृश हो गया हूं। धमनियों का जाल मात्र रह गया किसे धमणिसंतए जाए, णो संचाएमि हूं, इसलिए मैं सामने आकर आपके चरणों में तीन बार देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउन्भवित्ता णं तिक्खुत्तो। मस्तक झुकाकर अभिवादन करने में समर्थ नहीं हूं। भंते! मुद्धाणेणं पादे अभिवंदित्तए। तुब्भे णं भंते! आप अपने इच्छाकार और स्वतंत्रभाव से कृपया इधर इच्छाकारेणं अणभिओएणं इओ चेव एह, जेणं आएं, जिससे मैं आपके चरणों में तीन बार मस्तक देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पादेसु वंदामि झुकाकार वन्दन-नमस्कार कर सकूँ। णमंसामि। तए णं से भगवं गोयमे जेणेव अणदे समणोवासए ___ श्रमणोपासक आनन्द की इस प्रार्थना पर भगवान तेणेव उवागच्छइ।
गौतम उसके पास आए। तए णं से आणदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स श्रमणोपासक आनंद ने तीन बार मस्तक झुकाकर तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पादेसु वंदइ णमंसइ, वंदित्ता भगवान गौतम के चरणों में वन्दन-नमस्कार किया और णमंसित्ता एवं वयासी-अत्थि णं भंते! गिहिणो कहा-भंते! क्या एक गृहस्थ को गृहवास में रहते हुए