________________
आत्मा का दर्शन
४८६. लवण व्व सलिलजोए,
तस्स सुहासुहडहणो,
४८७. जस्स न विज्जदि रागो,
झाणे चित्तं विलीयए जस्स ।
अप्पाअणलो पयासेइ ॥
दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी ॥
४८८. पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व, होऊण सुइ- समायारो । झाया समाहिजुत्तो, सुहासणत्थो सुइसरीरो ॥
४८९-४९०. पलियंकं बंधेजं,
निसिद्ध-मण- वयण- काय-वावारो । नासग्ग-निमिय- नयणो,
मंदीकय- सास- नीसासो ॥
७१२
गरहिय-निय दुच्चरिओ,
खामिय- सत्तो नियत्तियपमाओ। निच्चलचित्तोता झाहि, जाव पुरओव्व पडिहाइ ॥
४९१. थिर-कय-जोगाणं पुण,
मुणीण झाणे सुनिच्चल - मणाणं । गामम्मि जणाइणे,
सुणे रणे व ण विसेसो ॥
४९२. जे इंदियाणं विसया मणुण्णा,
न याऽमणुणेसु मणं पि कुज्जा,
न तेसु भावं निसिरे कयाइ ।
४९४. पुरिसायारो अप्पा,
४९३. सुविदिय - जग-स्सभावो,
समाहिकामे समणे तवस्सी ॥
निस्संगो निब्भओ निरासो य । वेरग्ग- भाविय-मणो,
झामि सुनिच्चलो होइ ॥
जोई वर णाण- दंसण - समग्गो । जो झायदि सो जोई, पावहरो हवदि णिहंदो ॥
3
खण्ड - ५
जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है, उसके चिर संचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रकट होती है।
जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं है तथा मन-वचनकायरूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है ।
पूर्व या उत्तर दिशाभिमुख होकर बैठनेवाला शुद्ध आचार तथा पवित्र शरीरवाला ध्याता सुखासन से स्थित हो समाधि में लीन होता है।
वह ध्याता पल्यंकासन बांधकर और मन-वचन-काय के व्यापार को रोककर दृष्टि को नासिकाग्र पर स्थिर करके मंद-मंद श्वासोच्छ्वास ले। और अपने पूर्वकृत बुरे आचरण की गर्हा करे, सब प्राणियों से क्षमाभाव चाहे, प्रमाद को दूर करे और चित्त को निश्छल करके तब तक ध्यान करे जब तक पूर्वबद्ध कर्म नष्ट न हो जाएं।
जिन्होंने अपने योग को स्थिर कर लिया है और जिनका ध्यान में चित्त पूरी तरह निश्चल हो गया है, उन मुनियों के ध्यान के लिए घनी आबादी के ग्राम अथवा शून्य अरण्य में कोई अंतर नहीं रह जाता।
समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल विषयों (शब्द-रूपादि) में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे।
जो संसार के स्वरूप से सुपरिचित है, निःसंग, निर्भय तथा आशारहित है तथा जिसका मन वैराग्य भावना से युक्त है, वही ध्यान में सुनिश्चल - भलीभांति स्थित होता है।
जो योगी पुरुष के आकारवाली तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन से पूर्ण आत्मा का ध्यान करता है, वह कर्मबंधन को नष्ट करके निर्द्वन्द्व हो जाता है।