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समणसुत्तं
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अ. २ : मोक्षमार्ग
१९५. देहविवित्तं पेच्छा ,
अप्पाणं तह य सव्व-संजोगे। - देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ॥
ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य संयोगों से विविक्त (भिन्न) देखता है अर्थात् देह तथा उपधि का सर्वथा त्याग करके निःसंग हो जाता है।
१९६. णाहं होमि परेसिं,
ण मे परे संति णाण-मह-मेक्को । ___ इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा॥
वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तन करता है कि 'मैं न 'पर' का हूं, न 'पर' (पदार्थ) मेरे हैं, मैं तो एक (शुद्ध-बुद्ध) ज्ञानमय (चैतन्य) हूं।'
१९७. झाणदिठओ हु जोई
जइ णो संवेय णियय-अप्पाणं। तो ण लहइ तं सुद्धं भग्गविहीणो जहा रयणं॥
ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता।
१९८. भावेज्ज अवत्थतियं,
ध्यान करनेवाला साधक पिंडस्थ, पदस्थ और पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं। रूपातीत-इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे। छउमत्थ-केवलित्तं सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो॥ पिंडस्थध्यान का विषय है-छद्मस्थत्व-देह-विपश्यत्व।
पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व-केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचिंतन और रूपातीतध्यान का विषय है सिद्धत्व-शुद्ध आत्मा।
१९९. अवि झाइ से महावीरे,
आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढमहे तिरियं च,
पेहमाणे समाहिमपडिण्णे॥
भगवान् उकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊंचे-नीचे और तिरछे लोक में होनेवाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्मसमाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प-मुक्त थे।
१००. णातीतमढ् ण य आगमिस्सं,
. .. अळं नियच्छति तहा गया उ। विधूतकप्पे एयाणुपस्सी,
णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥
तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। कल्पना मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
५०१. मा चिट्ठह मा जंपह,
. मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिरो। .. अप्पा अप्पम्मि रओ,
इणमेव वरं हवे झाणं॥
हे ध्याता! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर, इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायेगा-तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी। यही परम ध्यान है।
५०२. न कसाय-समुत्थेहि य,
___ वाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहि। ईसा-विसाय सोगा इएहिं,
झाणोवगय-चित्तो॥
जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित (ग्रस्त या पीड़ित) नहीं होता।