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________________ समणसुत्तं ७१३ अ. २ : मोक्षमार्ग १९५. देहविवित्तं पेच्छा , अप्पाणं तह य सव्व-संजोगे। - देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सव्वहा कुणइ॥ ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य संयोगों से विविक्त (भिन्न) देखता है अर्थात् देह तथा उपधि का सर्वथा त्याग करके निःसंग हो जाता है। १९६. णाहं होमि परेसिं, ण मे परे संति णाण-मह-मेक्को । ___ इदि जो झायदि झाणे, सो अप्पाणं हवदि झादा॥ वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तन करता है कि 'मैं न 'पर' का हूं, न 'पर' (पदार्थ) मेरे हैं, मैं तो एक (शुद्ध-बुद्ध) ज्ञानमय (चैतन्य) हूं।' १९७. झाणदिठओ हु जोई जइ णो संवेय णियय-अप्पाणं। तो ण लहइ तं सुद्धं भग्गविहीणो जहा रयणं॥ ध्यान में स्थित योगी यदि अपनी आत्मा का संवेदन नहीं करता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता; जैसे कि भाग्यहीन व्यक्ति रत्न प्राप्त नहीं कर सकता। १९८. भावेज्ज अवत्थतियं, ध्यान करनेवाला साधक पिंडस्थ, पदस्थ और पिंडत्थ-पयत्थ-रूवरहियत्तं। रूपातीत-इन तीनों अवस्थाओं की भावना करे। छउमत्थ-केवलित्तं सिद्धत्तं चेव तस्सत्थो॥ पिंडस्थध्यान का विषय है-छद्मस्थत्व-देह-विपश्यत्व। पदस्थध्यान का विषय है केवलित्व-केवली द्वारा प्रतिपादित अर्थ का अनुचिंतन और रूपातीतध्यान का विषय है सिद्धत्व-शुद्ध आत्मा। १९९. अवि झाइ से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे॥ भगवान् उकडू आदि आसनों में स्थित और स्थिर होकर ध्यान करते थे। वे ऊंचे-नीचे और तिरछे लोक में होनेवाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्मसमाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प-मुक्त थे। १००. णातीतमढ् ण य आगमिस्सं, . .. अळं नियच्छति तहा गया उ। विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी॥ तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। कल्पना मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। ५०१. मा चिट्ठह मा जंपह, . मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिरो। .. अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव वरं हवे झाणं॥ हे ध्याता! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिंतन कर, इस प्रकार योग का निरोध करने से तू स्थिर हो जायेगा-तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी। यही परम ध्यान है। ५०२. न कसाय-समुत्थेहि य, ___ वाहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहि। ईसा-विसाय सोगा इएहिं, झाणोवगय-चित्तो॥ जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित (ग्रस्त या पीड़ित) नहीं होता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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