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________________ आत्मा का दर्शन ७१४ खण्ड-५ ५०३. चालिज्जइ बीभेइ य,धीरो न परीसहोवसग्गेहि। सुहमेसु न संमुच्छइ, भावेसु न देवमायासु॥ वह धीर पुरुष न तो परीषह, न उपसर्ग आदि से विचलित और भयभीत होता है तथा न ही सूक्ष्म भावों व देवनिर्मित मायाजाल में मुग्ध होता है। ५०४. जह चिरसंचिय-मिंधण मनलो पवण-सहिओ दुयं दहइ। तह कम्मेंधणममियं, खणण झाणानलो डहइ॥ जैसे चिरसंचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यानरूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है। अनुप्रेक्षा सूत्र अनुप्रेक्षा सूत्र ५०५. झाणोवरमेऽवि मुणी, णिच्च-मणिच्चाइ-भावणा-परमो। होइ सुभाविय-चित्तो, धम्मज्झाणेण जो पुब्बिं॥ मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्य-अशरण आदि भावनाओं के चिन्तन में लीन रहे। ५०६. अर्धव-मसरण-मेगत्त अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, मन्नत्त-संसार-लोय-मसुइत्तं।। अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि-इन आसव-संवर-णिज्जर, बारह भावनाओं का चिंतन करना चाहिए। धम्मं बोधिं च चिंतिज्ज॥ ५०७. जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं। लच्छी विणास-सहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह॥ जन्म मरण के साथ जुड़ा हुआ है और यौवन वृद्धावस्था के साथ। लक्ष्मी चंचला है। इस प्रकार (संसार में) सब-कुछ क्षणभंगुर है-अनित्य है। ५०८. चइऊण महामोहं, विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे। णिव्विसयं कुणह मणं, जेण सुहं उत्तम लहह॥ महामोह को तजकर तथा सब इन्द्रिय-विषयों को क्षण-भंगुर जानकर मन को निर्विषय बनाओ, ताकि उत्तम सुख प्राप्त हो। ५०९. वित्तं पसवो यणाइओ, तं बाले सरणं ति मण्णइ। एए मम तेसिं वा अहं, णो ताणं सरणं ण विज्जई॥ अज्ञानी जीव धन, पशु तथा ज्ञातिवर्ग को अपना रक्षक या शरण मानता है कि ये मेरे हैं और मैं इनका हूं। किन्तु वास्तव में ये सब न तो रक्षक हैं और न शरण। ५१०.संगं परिजाणामि, __ सल्लं पि य उद्धरामि तिविहेणं। गुत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च॥ मैं परिग्रह का (विवेकपूर्वक) त्याग करता हूं और माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों को भी मनवचन-काय से दूर करता हूं। तीन गुप्तियां और पांच समितियां ही मेरे लिए रक्षक और शरण है। ५११. धी संसारो जहियं, जुवाणओ परमरूवगव्वियओ। मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कलेवरे नियए॥ इस संसार को धिक्कार है, जहां परम रूप-गर्वित युवक मृत्यु के बाद अपने उसी त्यक्त (मृत) शरीर में कृमि के रूप में उत्पन्न हो जाता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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