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________________ समणसुत्तं अ.२ : मोक्षमार्ग ४७८. णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं। णिज्जरणफलं मोक्खं,णाणब्भासं तदो कुज्जा॥ ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए। ४७९. बारसविहम्मि वि तवे, सभिंतरबाहिरे कुसलदिठे। न वि अत्थि न वि य होही, सज्झायसमं तवोकम्म। बाह्याभ्यन्तर बारह तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है, न होगा। ४८०. सयणासण-ठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे। कायस्स विउस्सग्गो, छट्ठो सो परिकित्तिओ॥ भिक्षु का शयन, आसन और खड़े होने में व्यर्थ का कायिक व्यापार न करना, काष्ठवत् रहना, छठा कायोत्सर्ग तप है। ४८१. देहमइजड्डसुद्धी, सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा। झायइ य सुहं झाणं एगग्गो काउसग्गम्मि॥ कायोत्सर्ग करने से ये लाभ प्राप्त होते हैं-१. देहजाड्यशुद्धि २. मतिजाड्यशुद्धि ३. सुख-दुःख तितिक्षा ४. अनुप्रेक्षा और ५. एकाग्रता।' ४८२. तेसिं तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला। . जे नेवन्ने वियाणंति, न सिलोर्ग पवेज्जइ॥ उन महाकुलवालों का तप भी शुद्ध नहीं है, जो प्रव्रज्या धारणकर पूजा-सत्कार के लिए तप करते हैं। इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह तप करना चाहिए कि दूसरे लोगों को पता तक न चले। अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए। ४८३. नाणमयवायसहिओ, सीलुज्जलिओ तवो-मओ अग्गी। संसारकरणबीयं; दहइ दवग्गी व तणरासिं॥ ज्ञानमयी वायुसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी अग्नि संसार के कारणभूत कर्म-बीज को वैसे ही जला देती है, जैसे वन में लगी प्रचंड आग तण-राशि को। ध्यान सूत्र ध्यान सूत्र ४८४. सीसं जहा सरीरस्स, हा मूलं दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते॥ जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट या मुख्य है, वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। ४८५. जं थिरमज्झवसाणं; तं झाणं जं चलंतयं चित्तं। स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता॥ ध्यान है और जो चित्त की चंचलता है, उसके तीन रूप हैं-भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता। १. देहजाड्यशुद्धि-श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है। २. मतिजाड्यशुद्धि- जागरुकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। ३. सुख-दुःख तितिक्षा-सुख-दुःख को सहने की शक्ति का विकास होता है। ४. अनुप्रेक्षाभावनाओं के लिए समुचित अवसर का लाभ होता है। ५. एकाग्रता-शुभध्यान के लिए चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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