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________________ आत्मा का दर्शन ७१० खण्ड-५ ४७०. विणओ मोक्खद्दारं, विणयादो संजमो तवो णाणं। विणएणाराहिज्जदि, आइरिओ सव्वसंघो य॥ विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त होता है। विनय से आचार्य तथा सर्वसंघ की आराधना होती है। ४७१. विणयाहीया विज्जा, देति फलं इह परे य लोगम्मि। न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई॥ विनयपूर्वक प्राप्त की गयी विद्या इसलोक तथा परलोक में फलदायिनी होती है और विनयविहीन विद्या फलप्रद नहीं होती, जैसे बिना जल के धान्य नहीं उपजता। ४७२. तम्हा सव्वपयत्ते, विणीयत्तं मा कदाइ छंडेज्जा। अप्पसुदो वि य पुरिसो, खवेदि कम्माणि विणएण॥ इसलिए सब प्रकार का प्रयत्न करके विनय को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। विनय के द्वारा अल्पश्रुत पुरुष भी कर्मों का नाश देता है। ४७३. सेन्जोगासणिसेज्जो, ___ तहोवहि-पडिलेहणाहि उवग्गहिदे। आहारोसहवायण विकिंचणं वंदणादीहिं॥ शय्या, वसति, आसन तथा प्रतिलेखन से उपकृत साधुजनों की आहार, औषधि, वाचना, मल-मूत्र विसर्जन तथा वन्दना आदि से सेवा-शश्रूषा करना वैयावृत्य तप है। ४७४. अद्धाणतेणसावद-रायणदीरोधणासिवे ओमे। वेज्जावच्चं उत्तं, संगह-सारक्खणोवेदं॥ जो मार्ग में चलने से थक गये हैं, चोर, श्वापद (हिंस्रपशु), राजा द्वारा व्यथित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सारसम्हाल तथा रक्षा करना वैयावृत्य है। ४७५. परियट्टणा य वायणा, पडिच्छणाणुवेहणा य धम्मकहा। थुदिमंगलसंजुत्तो, पंचविहो होइ सज्झाओ॥ स्वाध्याय तप पांच प्रकार का है-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और स्तुति-मंगलपूर्वक धर्मकथा करना। ४७६. पूयादिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए। कम्ममल-सोहणठें, सुयलाहो सुहयरो तस्स॥ आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिन-शास्त्रों को पढता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है। ४७७. सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य। होइ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू।। स्वाध्यायी अर्थात् शास्त्रों का ज्ञाता साधु पांचों इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है। . .
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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