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________________ आत्मा का दर्शन ६२४ खण्ड-४ ५६.आरंभाओ अविरओ, खुदो साहसिओ नरो। आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, बिना विचारे कार्य करने एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे॥ वाला है जो इन सभी से युक्त है, वह नील लेश्या में परिणत होता है। ५७.वंके वंकसमायारे, नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए, मिच्छदिट्ठी अणारिए। जो मनुष्य वचन से वक्र है, जिसका आचरण वक्र है, माया करता है, सरलता से रहित है, अपने दोषों को छुपाता है, छद्म का आचरण करता है, मिथ्यादृष्टि है, अनार्य हैं। ५८. उप्फालगदुद्रुवाई य, तेणे यावि य मच्छरी। एयजोगसमाउत्तो, काउलेसं तु परिणम।। हंसोड़ है, दुष्ट वचन बोलनेवाला है, चोर है, मत्सरी है-जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह कापोत लेश्या में परिणत होता है। ५९.नीयावित्ती विणीयविणए अचवले, अमाई दंते, जोगवं अकुऊहले। उवहाणवं॥ जो मनुष्य नम्रता से बर्ताव करता है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहली है, विनय करने में निपुण है, दान्त है, समाधि युक्त है, उपधान-श्रुत अध्ययन करते समय तप करने वाला है। ६०.पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरू हिएसए। एयजोगसमाउत्तो, तेउलेसं तु परिणमे॥ धर्म में प्रेम रखता है, धर्म में दृढ़ है, पापभीरु है, हित चाहनेवाला है जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। ६१.पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए। पसंतचित्ते दंतप्पा जोगवं उवहाणवं॥ जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, समाधियुक्त है, उपधान करनेवाला है। ६२.तहा पयणुवाई य उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे॥ अत्यल्प भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। ६३.अट्टरुहाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिहिं॥ जो मनुष्य आर्त और रौद्र-इन दोनों ध्यानों को छोड़कर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में लीन रहता है, प्रशान्तचित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, समितियों से समित है, गुप्तियों से गुप्त है। ६४.सरागे वीयरागे वा उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे॥ उपशान्त है, जितेन्द्रिय है जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शक्ल लेश्या में परिणत होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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