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________________ प्रायोगिक दर्शन ६२३ अ. १३ : कर्मवाद नरगतल-पइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा! हो जाते हैं। गौतम! इस प्रकार जीव गुरुता को प्राप्त होते हैं। जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति। ५१.अह णं गोयमा! से तुंबे तंसि पढमिल्लुंगंसि मट्टियालेवंसि तित्तंसि कुहियंसि ईसिं धरणियलाओ उप्पतित्ता णं चिट्ठइ। तयाणंतरं दोच्चं पि मट्टियालेवे तित्ते कुहिए परिसडिए ईसिं धरणियलओ उप्पतित्ता णं चिट्ठइ। एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु तित्तेसु कुहिएसु परिसडिएसु से तुंबे विमुक्कबंधणे अहे धरणियलमइवइत्ता उप्पिं सलिलतलपइठाणे गौतम! उस प्रथम मिट्टी के लेप के आर्द्र, कुथित और परिशटित होने पर वह तुम्बा धरती के तल से कुछ ऊपर आ जाता है। तदनन्तर दूसरे मिट्टी के लेप के भी आर्द्र, कुथित और परिशटित होने पर वह धरती के तल से कुछ और ऊपर आ जाता है। इस प्रकार उन आठों ही लेपों के आर्द्र, कुथित और परिशटित होने पर वह बन्धन मुक्त होकर धरती के निम्न तल का अतिक्रमण कर, ऊपर जल पर प्रतिष्ठित हो जाता है। भवइ। एवामेव गोयमा! जीवा. पाणाइवायवेरमणेणं जाव गौतम! इसी प्रकार जीव प्राणातिपात विरमण यावत् मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्म- मिथ्यादर्शनशल्य विरमण की प्रक्रिया से क्रमशः आठ कर्म पगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं प्रकृतियों को क्षीण कर, गगनतल में उठकर ऊपर लोकाग्र लोयम्गपइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा! जीवा में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। गौतम! इस प्रकार जीव लघुता को लइयत्तं हव्वमागच्छंति। प्राप्त होते हैं। लेश्या और उसके परिणाम ५२.कति णं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ? भंते! कितनी लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा- गौतम ! छह लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा॥ ५३.पंचासवप्पवत्तो, तीहिं अगुत्तो छसु अविरओ य। तिव्वारंभपरिणओ, खुदो साहसिओ नरो॥ जो मनुष्य पांचों आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों से अगुप्त है, षट्काय में अविरत है, तीव्र आरंभ (सावद्यव्यापार) में संलग्न है, क्षुद्र है. बिना विचारे कार्य करने वाला है। ५४.निबंधसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदिओ। - एयजोगसमाउत्तो, किण्हलेसं तु परिणमे॥ लौकिक और पारलौकिक दोषों की शंका से रहित मन वाला है, नृशंस है, अजितेन्द्रिय है-जो इन सभी से युक्त है, वह कृष्ण लेश्या में परिणत होता है। ५.इस्साअमरिसअतवो अविज्जमाया अहीरिया य। गेली पओसे य सढे पमत्ते, रसलोलुए सायगवेसए य॥ जो मनुष्य ईर्ष्यालु है, कदाग्रही है, अतपस्वी है, अज्ञानी है, मायावी है, निर्लज्ज है, गृद्ध है, प्रद्वेष करने वाला है, शठ है, प्रमत्त है, रस-लोलुप है, सुख का गवेषक है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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