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आत्मा का दर्शन
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रोगा केहि अभिभूए समाणे रज्जे य रट्ठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे रज्जं च रट्ठं च कोसं च कोट्ठागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे अट्टदुहट्टवसट्टे अड्ढाइज्जाई वाससयाई परमाउं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमट्ठिइएस नेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णे । से णं तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववण्णे ।
५०. तए णं से इंदभूई नामं अणगारे जायसड्ढे जाव एवं वयासी-कहण्णं भंते! जीवा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति ?
खण्ड-४
उदासीन हो गया। वह राज्य आदि में और अधिक मूर्च्छित और आसक्त हो गया। आर्त्तध्यान का वशवर्ती हो २५० वर्ष की उत्कृष्ट आयु को पूर्णकर, मृत्यु को प्राप्त हो रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। उसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की थी।
जीव का भारीपन और हल्कापन
गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कतुंबं निच्छिदं निरुवहयं दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिंपित्ता उहे दलयs, दलयित्ता सुक्कं समाणं दोच्चंपि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिंपित्ता उन्हे दलयइ, दलयित्ता सुक्कं समाणं तच्वंपि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, मट्टियालेवेणं लिंपइ, उण्हे दलयइ, एवं खलु एएवाणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिंपमाणे अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अट्ठहिं मट्टियालेवेहिं लिंपइ । अत्थाहमतारम-पोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा से नूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवेणं गरुययाए भारिययाए गरुय - भारिययाए उप्पिं सलिलमइवइत्ता अहे धरणियलपइट्ठाणे भवइ ।
एवामेव गोयमा ! जीवा वि पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जिणित्ता तासिं गरुययाए भारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमईवइत्ता अहे
वहां से आयु पूर्ण कर इस मृगाग्राम नगर के विजय क्षत्रिय की पत्नी मृगादेवी की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ।
इन्द्रभूति अनगार के मन में एक श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे भगवान महावीर के पास आए और बोले- भंते! जीव गुरुता और लघुता को कैसे प्राप्त होते हैं ?
गौतम! जैसे कोई पुरुष एक बड़े निश्छिद्र, निरुपहत, सूखे तुम्बे को डाभ और कुश से वेष्टित करता है। उस पर मिट्टी का लेप करता है। उसे धूप में रखता है। जब वह सूख जाता है तो दूसरी बार भी डाभ और कुश से वेष्टितकरता है। उस पर मिट्टी का लेप करता है, उसे धूप में रखता है। जब वह सूख जाता है तो तीसरी बार भी उसे ST और कुश से वेष्टित करता है, उस पर मिट्टी का लेप करता है और धूप में रखता है। इस प्रकार आठ आवृत्तियां करता है। फिर उसे अथाह पानी में प्रक्षिप्त कर देता है। गौतम ! मिट्टी के लेप की उन आठ आवृत्तियों से वह तुम्बा गुरु और भारी बना सतह को छोड़कर नीचे धरती के तल में प्रतिष्ठित हो जाता है।
गौतम ! इसी प्रकार जीव भी प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के कारण क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियों का अर्जन करते हैं। उससे प्राप्त गुरुता और भारीपन के कारण वे मरकर धरणीतल का अतिक्रमण कर नीचे नरकतल में प्रतिष्ठित