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________________ प्रायोगिक दर्शन ६२१ अ. १३ : कर्मवाद तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया! वेज्जो वा वेज्जपुत्तो देवानुप्रियो! जो कोई वैद्य, वैद्यपुत्र (शिष्य), वैद्य शास्त्र वा जाणुओ वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छिओ वा का ज्ञाता, वैद्यशास्त्र के ज्ञाता का पुत्र, चिकित्सक, तेगिच्छियपुत्तो वा एक्काइस्स रट्ठकूडस्स तेसिं चिकित्सक पुत्र एक्काई राठौड़ के सोलह रोग और आतंक सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायकं में एक भी रोग और आतंक को उपशांत करने की इच्छा उवसामित्तए तस्स णं एक्काई रट्ठकूडे विउलं रखता है, उसको एक्काई राठौड़ विपुल अर्थसम्पदा देगा। अत्थसंपयाणं दलयइ। दोच्चं पि तच्चं पि यह उद्घोषणा दो-तीन बार करो। उद्घोषणा करके इस उग्धोसेह, उग्घोसेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। आज्ञा को मुझे पुनः समर्पित करो। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव तमाणत्तियं कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा को पुनः समर्पित किया। पच्चप्पिणंति। तए णं विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं विजयवर्धमान खेड़ा में इस प्रकार की उद्घोषणा सुनसोच्चा निसम्म बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य समझ बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र, वैद्यशास्त्र के ज्ञाता, वैद्यशास्त्र जाणुया य जाणुयपुत्ता य तेगिच्छिया य के ज्ञाता के पुत्र, चिकित्सक, चिकित्सक पुत्र औषधि और तेगिच्छियपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया सएहि-सएहिं शल्य चिकित्सक के उपकरणों की पेटी साथ ले अपनेगिहेहितो पडिनिक्खमंति। अपने घर से निकले। विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मज्झं मझेणं जेणेव विजयवर्धमान खेड़ा के मध्य से होते हुए एक्काई राठौड़ एक्काई-रट्ठकूडस्त्र गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवाग- के घर आए। उसके शरीर का स्पर्श किया। रोग और च्छित्ता एक्काई-रट्ठकूडस्स सरीरगं परामुसंति, आतंक का कारण पूछा। परामुसित्ता तेसिं रोगायंकाणं निंदाणं पुच्छंति। एक्काई-रट्ठकूडस्स बहूहिं अब्भंगेहि य कारण जानकर अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नेहन, वमन, उबट्टणाहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेचन और स्वेदन-पंचकर्म की चिकित्सा की। लोहे की विरेयणेहि य सेयणेहि य अवद्दहणाहि य कुश आदि से चमड़ी को दागा। औषध मिश्रित जल से अवण्हाणेहि य अणुवासणाहि य वत्थिकम्मेहि य स्नान करवाया। अनुवासन, वसति और निरूह का प्रयोग निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य किया। शिरावेध, शस्त्र से चमड़ी काटना, सूक्ष्म औजारों से सिरवत्थीहि य तप्पणाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि चमड़ी की परतों को उतारना, शिरोवसति का प्रयोग, तर्पण, य बल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि (शरीर को पुष्ट करनेवाले स्निग्ध द्रव्य) पुटपाक, (विविध य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य औषधियों से भावित द्रव्य) छाल, बल्ली, मूल, कंद, पत्र, ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसिं सोलसण्हं पुष्प, फल, बीज, चिरायता, गुटिका, औषध एवं भैषज्य रोगायंकाणं एगमवि रोगायकं उवसामित्तए, नो चेव आदि के द्वारा रोग और आतंक उपशांत करना चाहा। पर वे णं संचाएंति उवसामित्तए। सोलह रोग और आंतक में से एक भी रोग और आतंक को उपशांत करने में सफल नहीं हुए। तए णं से बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य वे चिकित्सक सोलह रोग और आतंक में से एक भी जाणुयपुत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपुत्ता य जाहे रोग और आतंक का उपशमन नहीं कर सके तो श्रांत, नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि क्लांत और निर्विण्ण हो जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा रोगायक उवसामित्ताए, ताहे संता तंता परितंता में चले गए। जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। तए णं एक्काई रट्ठकूडे वेज्ज-पडियाइक्खिए एक्काई राठौड़ वैद्यों के द्वारा उत्तर दे देने पर, परियारगपरिचत्ते निविण्णोसहभेसज्जे सोलस- परिचारकों द्वारा छोड़ दिए जाने पर औषध-भैषज्य के प्रति
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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