________________
आत्मा का दर्शन
२००
खण्ड - ३,
बाहरी दुःखों से ऊबकर अनगार बननेवाले रोटी, पानी, वस्त्र, मकान, आदि से प्रसन्न हो अध्यात्म को खो बैठते हैं। वे फिर बहिर्दशा में लौट आते हैं।
मोह-मूलक वैराग्य में भी कामनाएं अंतर में सुप्त रहती हैं। कामनाओं का उचित योग पाकर व्यक्ति विशेष रूप में उन्हीं में आसक्त हो जाते हैं। कामना का दौर इतना उग्र होता है कि हर एक व्यक्ति उससे मुक्त नहीं हो सकता। शंकराचार्य कहते हैं- 'ज्ञानमूलक वैराम्य परिपक्व होता है। साधक आत्मस्थ और अनासक्त हो जाता है। त्याग की परिपक्वता स्थायी वैराग्य में आती है। स्त्री परिजन अर्थ, गृह और स्वशरीर के प्रति भी वह ममत्व का विसर्जन कर देता है वह वितृष्ण बन यथार्थ सुख का अनुभव करता है।
४४. विरज्यमानः साबाधे नाबाधे प्रयतः सुखे । अनाबाधसुखं मोक्षं शाश्वतं लभते यतिः ॥
,
॥
व्याख्या ||
क्षेत्र
चेतना के आनंद में विचरण करने वालों का दूसरा होता है वे बाधाओं से आकीर्ण और अध्रुव सुख में संतुष्ट नहीं होते। उनका सुख अनाबाध और ध्रुव है। क्षणिक सुख में तृप्त होना और उसी के पीछे पागल होना यह उन्हीं के लिए है, जो शरीर के आगे कुछ नहीं देखते चेतन जगत् में चलने वाले सच्चे सुख को पा लेते हैं वे फिर कभी दुःख के दर्शन नहीं करते और न कभी जन्म-मरण के चक्कर में फंसते हैं। अध्रुव और विनश्वर सुख की ओर बढ़ने वाले उस सुख को पा भी सकते हैं और नहीं भी । सुख पाने पर भी वह उनसे वियुक्त हो जाता है। आखिर उन्हें दुःख देखना होता है और दुःख के आवर्त में फंसना होता है।
४५. अध्रुवेषु विरक्तात्मा, ध्रुवाण्याप्तुं सोऽध्रुवाणि परित्यज्य, ध्रुवं प्राप्नोति
जो मुनि बाधाओं से परिपूर्ण सुख से विरक्त होकर निर्वाध सुख को पाने का यत्न करता है वह अनाबाध सुख से सम्पन्न शाश्वत मोक्ष को प्राप्त होता है।
प्रचेष्टते । सत्वरम् ॥
जो व्यक्ति अध्रुव - अशाश्वत, तत्त्व से विरक्त होकर ध्रुव तत्व को प्राप्त करने में प्रयत्नशील बनता है, वह अध्रुव तत्त्व - पौद्गलिक पदार्थ को छोड़कर शीघ्र ही ध्रुव तत्त्व - परमात्मभाव को प्राप्त कर लेता है।
॥ व्याख्या ॥
जो कृत होता है, वह शाश्वत नहीं होता जो शाश्वत होता है, वह कृत नहीं होता।
आत्मा ध्रुव है, शाश्वत है जो पौद्गलिक संयोग-वियोग हैं, वे सब अध्रुव हैं, अशाश्वत हैं जो व्यक्ति पौद्गलिक संबंधों में आसक्त होता है, वह संसार चक्र को बढ़ाता है और जो आत्म-तत्त्व की खोज में चल पढ़ता है, अपने-आपको उसमें लगा देता है, उसे पाने के लिए पागल हो जाता है वह संसार-चक्र को सीमित करते-करते ध्रुव-तत्त्व (मोक्ष) को पा लेता है, आत्मा को पा लेता है।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे मोक्षसाधनमीमांसानाभा पंचमोऽध्यायः ।