SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संबोधि. १९९ ___ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा ४२.भिन्ने ग्रन्थौ दृढाऽऽबद्धे, दृष्टिमोहो विशुद्ध्यति। दृढ़ता से आबद्ध ग्रंथि का भेद होने पर 'दर्शनमोह' की . चारित्रञ्च ततस्तस्मात्, शीघ्र मोक्षो हि जायते॥ विशुद्धि होती है-दृष्टिकोण सम्यक् बन जाता है। इसके पश्चात् चारित्र की प्राप्ति होती है। पूर्ण चारित्र की प्राप्ति होने पर मोक्ष की . उपलब्धि होती है। ॥ व्याख्या ॥ मोह संसार है और निर्मोह मुक्ति। मूढ़ व्यक्ति कहता है, 'यह मेरा है, यह मेरा नहीं है। यह मैंने पा लिया है, यह मुझे पाना है। यह काम मैंने कर लिया है और यह करना शेष है।' वह इसी में व्यस्त रहता है। वास्तविक प्राप्य क्या है इसे नहीं जान पाता। वह बंधनों का जाल बना उसी में फंसा रहता है। ___ अनादि-अनंत संसार में घूमते हुए जब कभी आत्म-सामीप्य प्राप्त होता है तब सत्य का दर्शन होता है। आलोक की एक किरण भीतर को प्रकाशित करना चाहती है, मोह बंधन प्रतीत होने लगता है। यहीं से मनुष्य में मुमुक्षा-भाव की अभीप्सा होती है, जिसे संवेग कहते हैं। संवेग का फल है-धर्म-श्रद्धा। जब तक व्यक्ति में मोक्ष की अभिलाषा नहीं होती तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म-श्रद्धा का फल है-वैराग्य। कोई भी व्यक्ति पौद्गलिक पदार्थों से तब तक चिपका रहता है जब तक उसकी धर्म में श्रद्धा नहीं होती। वह सुखाभास में ही सत्य-सुख की कल्पना मान सुख मानने लगता है। वैराग्य के उदय होने पर यथार्थ आनंद का अनुभव करने लगता है। स्व में श्रद्धा स्थिर हो जाती है। व्यक्ति अनासक्त बन जाता है। मोह की गांठ वहीं घुलती है जहां आसक्ति है। वैराग्य से वह खुल जाती है। ग्रंथि-भेद वैराग्य का फल है। जब दीर्घकालीन मोह की गांठ शिथिल हो जाती है, तब मोह का आवरण हटने लगता है। आवरण-विलय के तीन रूप हैं : १. पूर्ण विलय होना। २. सर्वथा उपशांत होना-दब जाना। ३. कुछ क्षीण और कुछ उपशांत होना। . इसके आधार पर पहली अवस्था क्षायिक सम्यक्त्व है। दूसरी उपशम सम्यक्त्व और तीसरी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व-प्राप्ति के बाद चारित्र की प्राप्ति होती है। कोरा चारित्र आत्म-शून्य शरीर का श्रृंगार है। चारित्र का अर्थ है-आत्मा को विजातीय तत्त्वों से सर्वथा रिक्त करना। इससे आत्मा अपने स्वरूप में अधिष्ठित हो जाती है। साध्यसिद्धि का मूल सम्यक्त्व है। जितनी भी आत्माएं परमात्म-पद में अधिष्ठित हुई है; होंगी, और होती हैं, वह सब सम्यग् दर्शन का प्रभाव है। चारित्र उस मूल को पोषण देकर पल्लवित और पुष्पित कर देता है। उसकी चरम परिणति है-मुक्ति। ४३. धर्मश्रद्धा जनयति, विरक्तिं क्षणिके सुखे। .. गृहं त्यक्त्वाऽनगारत्वं, विरक्तः प्रतिपद्यते॥ धर्म-श्रद्धा से क्षणिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और विरक्त मनुष्य गृहत्यागी अनगार बनता है-मुनि-धर्म को स्वीकार करता है। ॥ व्याख्या ॥ संन्यास का आधार है-निस्पृहता। निस्पृहता का अर्थ है-वैराग्य। इस लिए वैराग्य को समस्त तपों का मूल कहा गया है। विशुद्धि के बिना तप का समाचरण नहीं होता। कष्टों की स्वीकृति वही कर सकता है जो विरक्त है। विरक्त के - तीन रूप हैं.......दुःखात्मक, मोहात्मक और ज्ञानात्मक। आचार्य हेमचंद्र महावीर की स्तुति करते हुए कहते हैं.....'हे प्रभो! अन्य व्यक्ति दुःख और मोहमूलक वैराग्य में प्रतिष्ठित रहते हैं, जबकि आप केवल ज्ञानमूलक वैराग्य में हैं। दुःखमूलक वैराग्य स्थायी नहीं होता। दुःख की निवृत्ति के बाद वह समाप्त हो जाता है। ___तुलसीदासजी ऐसे व्यक्तियों के लिए कहते हैं 'नारी मई गृह सम्पति नासी, मंड मंडाय भये संन्यासी।'
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy