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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
॥ व्याख्या ॥ व्यक्ति अपने प्राप्य के प्रति प्रतिपल प्रयत्नशील रहे तो वह अवश्य प्राप्त होता है। गति की शिथिलता चरणों को कमजोर बना देती हैं। अथक प्रयत्न से कुछ भी असाध्य नहीं है। साधक आत्मोन्मुख होकर बढ़ता है। वह चाहता है, लक्ष्य को हस्तगत करना, लेकिन बाधाएं उसे प्रताड़ित करती हैं। बाधाएं हैं-मोह, ममत्व, घृणा, राग, मानसिक चपलता, विषयप्रवृत्ति आदि-आदि। साधक इन्हें परास्त किए बिना सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। आत्म-स्वरूप की प्राप्ति में ये विघ्न । डालते हैं। आत्म-साक्षात्कार की एक छोटी-सी प्रक्रिया है। उसके सहारे हम लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। प्रत्येक साधक में निम्न गुण आवश्यक हैं :
१. लक्ष्य में दृढ़ आस्था। २. लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण। ३. सतत प्रयत्न और दीर्घकालीन अभ्यास। ४. आसन का अभ्यास, शरीर-स्थैर्य। ५. वाक्-संयम। ६. सत् संकल्पों से मन को भावित करना। ७. चित्त-निरोध।
४०.आत्मा वशीकृतो येन, तेनात्मा विदितो धूवम्।
अजितात्मा विदन् सर्व, अपि नात्मानमृच्छति॥
जिसने आत्मा को वश में कर लिया, उसने वास्तव में आत्मा को जान लिया। जिसने आत्मा को नहीं जीता, वह सब कुछ जानता हुआ भी आत्मा को नहीं पा सकता।
॥ व्याख्या ॥ प्रस्तुत श्लोक में ज्ञान और क्रिया के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है।
ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। वह संसार दशा में आवृत रहता है। उसकी शुद्धि के लिए चारित्र की अपेक्षा होती है। चारित्र साधन है, साध्य है आत्म-स्वरूप का प्रादुर्भाव। साध्य की दृष्टि से ज्ञान का स्थान पहला है और चारित्र का दूसरा। साधन की दृष्टि से चारित्र का स्थान पहला है और ज्ञान का दूसरा। .
जैन दर्शन का सारा चिंतन आत्मा की परिक्रमा किए चलता है। आत्मा का ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान है। आत्मा पर आस्था ही सम्यग् दर्शन है। आत्म-प्राप्ति की प्रवृत्ति ही सम्यग् चारित्र हैं। आचारांग सूत्र में कहा है-'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई'-जो एक को (आत्मा को) जानता है, वह सबको जानता है।
आत्म-विजय ही परम विजय है। आत्मा को रखते हुए देह की रक्षा की जाए, वह देह-रक्षा भी संयम है। आत्मा को गंवाकर देह-रक्षा करना साधक के लिए इष्ट नहीं होता। आत्मा की रक्षा और अरक्षा सुख और दुःख का हेतु हैं। इसलिए आत्मा को जानो, आत्मा को वश में करो, यही धर्म का सार है। भगवान् महावीर ने कहा है :
अप्पा खलु संययं रक्खियव्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं।
अरक्खिओ जाइपहं उबेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ॥ -सभी इन्द्रियों को सुसमाहित कर आत्मा की सतत रक्षा करो; अरक्षित आत्मा जन्म-मरण को प्राप्त होता है और सुरक्षित आत्मा दुःखों से मुक्त हो जाता है।
४१.मोक्षाभिलाषः संवेगो, धर्मश्रद्धाऽस्ति तत्फलम्।
वैराग्यञ्च ततस्तस्माद्, ग्रन्थिभेदः प्रजायते॥
व्यक्ति में पहले मोक्ष की अभिलाषा-संवेग होता है। संवेग का फल है-धर्म-श्रद्धा। जब तक व्यक्ति में मुमुक्षाभाव नहीं होता, तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती। धर्म-श्रद्धा का फल है-वैराग्य। वैराग्य का फल है-ग्रंथि-भेद। आसक्ति से जो मोह की गांठ घुलती है, वह वैराग्य से खुल जाती है।