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________________ संबोधि. १९७ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा ३५.मनः स्थैर्य ततस्तस्माद्, विकाराणां परिक्षयः। इन्द्रियों की शांति से मन स्थिर बनता है और मन की क्षीणेषु च विकारेषु, त्यक्ता भवति वासना॥ स्थिरता से विकार क्षीण होते हैं। विकारों के क्षीण होने पर वासना नष्ट हो जाती है। ॥ व्याख्या ॥ विरक्त व्यक्ति का आकर्षण केन्द्र आत्मा है। उसके मनन, भाषण, चिंतन आदि कर्म आत्म-हित के लिए होते हैं। आत्म-भूमिका ज्यों-ज्यों दृढ़ होती है त्यों-त्यों विषयों की ओर से परामखता होती जाती है। व्यक्ति रक्त-दृष्टि वहीं होता है, जहां विषयों से उसका संपर्क होता है। इन्द्रियों को भी फलने-फूलने का अवसर वहीं उपलब्ध होता है। जहां विषयविमुखता है, वहां इन्द्रियां भी शांत हो जाती हैं। मन चपल नहीं है, चपल है श्वास और शरीर। इनकी चपलता के कारण ही मन पर चपलता का आरोप किया जाता है। जो व्यक्ति श्वास और शरीर पर नियंत्रण पा लेता है, वह सदा शांत रह सकता है। यह स्थितप्रज्ञता की ओर प्रयाण है। .. __'मन चेतना का एक अंश है। वह भला कैसे चंचल हो सकता है। वह वृत्तियों के चाप से चंचल होता है। वृत्तियां का जितना चाप होता है उतना ही वह चंचल होता है और वृत्तियां जितनी शांत या क्षीण होती हैं उतना ही वह स्थिर होता है, ध्यानस्थ होता है। तालाब का जल स्थिर पड़ा है। उसमें एक ढेला फेंका और वह चंचल हो गया। यह चंचलता स्वाभाविक नहीं, किन्तु बाह्य के संपर्क से उत्पन्न है। ठीक इसी प्रकार मन की चंचलता भी स्वाभाविक नहीं किन्तु वृत्तियों के संपर्क से उत्पन्न होती है। मन की चंचलता एक परिणाम है। वह हेतु नहीं है। उसका हेतु है-वृत्तियों का जागरण।' ३६.स्वाध्यायश्च तथा ध्यानं, विशुद्धेः स्थैर्यकारणम्। आभ्यां सम्प्रतिपन्नाभ्यां, परमात्मा प्रकाशते॥ स्वाध्याय और ध्यान-ये विशद्धि की स्थिरता के हेत हैं। इनकी उपलब्धि होने पर परमात्मा प्रकाशित हो जाता है। ३७.श्रद्धया स्थिरयाऽऽपन्नो, जयोऽपि चिरकालिकः। सुस्थिरां कुरुते वृत्तिं, वीतरागत्वभावितः॥ सुस्थिर श्रद्धा से कषाय, वासना आदि पर होने वाली विजय स्थायी हो जाती है। वह श्रद्धावान् व्यक्ति वीतरागता की भावना से भावित होकर आत्मा की वृत्तियों को एकाग्र बनाता है। ॥ व्याख्या ॥ श्रद्धा का अर्थ है-आत्म-स्वरूप की दृढ़ निश्चिति। आत्मा प्रतिक्षण अनेक प्रवृत्तियों में प्रत्यावर्तन करती रहती है। उसका झुकाव स्व की ओर कम होता है। हम देखते हैं, वह कषाय, राग, द्वेष, मोह, ममत्व, वासना, अहं आदि की ओर अधिक प्रवृत्त रहती है। उसे बहिर्भाव में जितना आनंद आता है, उतना स्वभाव में नहीं। स्वभाव की ओर झुकाव के लिए दृढ़ श्रद्धा की अपेक्षा रहती है इसलिए यहां श्रद्धा के लचीलेपन की ओर संकेत किया गया है। बहिर्भाव हमें आत्मोन्मुख होने नहीं देता। अगर हम जैसे-तैसे उस ओर चरण बढ़ा देते हैं तो फिर वह हमें बहिर्मुखता की ओर घसीट लाता है। . आत्म-मंदिर का प्रवेशद्वार श्रद्धा का स्थिरीकरण है। श्रद्धा जब आत्मा में केन्द्रित हो जाती है तब साधक पीछे की ओर नहीं देखता। वह आगे बढ़ता है। कषाय आदि पर-भाव हैं। वह उनमें उपलिप्त नहीं होता। वह देखता है-मैं शुद्ध हूं, बुद्ध हूं, निर्विकल्प हूं, ज्ञानमय हूं और वीतराग हूं। इस विशुद्ध भावना से वह अपनी समस्त आत्म-प्रवृत्तियों को एकाग्र बना लेता है। .. ३८.भावनानाञ्च सातत्यं, श्रद्धां स्वात्मनि सुस्थिराम्। चित्त को स्थिर रखने वाला और परिमितभोजी योगी अनित्य लब्ध्वा स्वं लभते योगी. स्थिरचित्तो मिताशनः॥ आदि भावनाओं की निरंतरता और सस्थिर श्रद्धा को प्राप्त कर अपने स्वरूप को पा लेता है। ३९.पर्यशासनमासीनः, कायगुप्तः ऋजुस्थितिः। नासाग्रे पुद्गलेऽन्यत्र, न्यस्तदृष्टिः स्वमश्नुते॥ वह शरीर को स्थिर बनाकर तथा पर्यंकासन की मुद्रा से सीधा-सरल बैठकर नाक के अग्रभाग में यह किसी दूसरी पौद्गलिक वस्तु में दृष्टि को स्थापित कर अपने स्वरूप को पा लेता है। १. पर्यकासन-पद्मासन।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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