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आत्मा का दर्शन
भगवान् प्राह
३०. अवैराग्यञ्च मोहश्च नात्र भेदोऽस्ति कश्चन । विषयाग्रहणं तस्मात्, ततश्चेन्द्रियवर्तनम् ॥ ३१. मनसश्चापलं तस्मात् संकल्पाः प्रचुरास्ततः । प्राबल्यं तत इच्छाया विषयासेवनं ततः ॥ ३२. वासनायास्ततो दादयं ततो मोहप्रवर्तनम् । मुक्तिर्भवति दुर्लभा ॥ (त्रिभिर्विशेषकम् )
मोहव्यूहे प्रविष्टानां
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३३. अवैराग्यञ्च सर्वेषां, भोगानां वैराग्यं नाम सर्वेषां योगानां
॥ व्याख्या ||
जीवन-धारण का लक्ष्य है-बंधन मुक्ति । बंधन मोह है। मोह व्यूह को बिना तोड़े कोई भी व्यक्ति साध्य तक पहुंच नहीं सकता। यह हमारी प्रगति में बाधक है। अज्ञान अंधकार की ओर ढकेलता है। इसलिए भक्त पुकारता है- हे प्रभो! तू मुझे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चल, मृत्यु से अमरता की ओर ले चल, असत्य से सत्य की ओर ले चल ।
मोह से विषयों में आकर्षण होता है। आकर्षण अविरक्ति है। मोह और अवैराग्य में शब्द-भेद है। अवैराग्य या मोह का क्रम हमें फिर से मोह में जकड़ लेता है। मोह का एक चक्रव्यूह है। पहले मोह से इन्द्रियों के विषय का ग्रहण होता है, उससे इन्द्रियां अपने-अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं, मन चपल होता है और उससे अनेक संकल्प विकल्प उत्पन्न होते हैं। इनसे इच्छा तीव्र होती है और फिर विषय का आसेवन प्रबल होता है। बार-बार या निरंतर विषयों के आसेवन से वासना दृढ होती जाती है और इससे मोह तीव्र होता जाता है व्यक्ति मोह से प्रवृत्त होता है और मोह की सघन अवस्था को पैदा कर पुनः उसी चक्र में फंसता जाता है। धीरे-धीरे मोह अत्यंत सघन होता जाता है और अंत में व्यक्ति को इतना मूढ़ बना देता है कि वह उसी में आनंद मानने लग जाता है। गीता में कहा गया है :
ध्यायतो विषयान्पुंसः, संगस्तेषूपजायते । संगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥ क्रोधाद् भवति सम्मोहः, सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशादबुद्धिनाशो,
बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
-विषयों के चिंतन से आसक्ति, आसक्ति से कामवासना, कामवासना से क्रोध, क्रोध से संमोह (अविवेक), संमोह
से स्मृतिविभ्रम, स्मृतिविभ्रम से बुद्धि-नाश और बुद्धिनाश से सर्वनाश होता है।
मूलमिष्यते । मूलमिष्यते ॥
खण्ड - ३
जो अवैराग्य है, वही मोह है। इनमें कोई भेद नहीं है। मोह से विषयों का ग्रहण होता है और उससे इंद्रियों की प्रवृत्ति होती है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति से मन चपल बनता है और मन की चपलता से अनेक संकल्प उत्पन्न होते हैं। संकल्पों से इच्छा प्रबल बनती है और प्रबल इच्छा से विषयों का सेवन होता है। विषयों के सेवन से वासना. दृढ़ होती है और दृढ़ वासना से मोह बढ़ता है। मोह के चक्रव्यूह में प्रवेश करने वालों के लिए मुक्ति दुर्लभ हो जाती है।
३४. विषयाणां परित्यागो, बैराम्येणाशु जायते । अग्रहश्च भवेत्तस्माद् इन्द्रियाणां शमस्ततः ॥
सब भोगों का मूल है अवैराग्य और सब योगों का मूल है वैराग्य ।
॥ व्याख्या ||
विरक्ति के बिना त्याग का केवल शाब्दिक आरोपण किया जाता है। वह त्याग आत्मा को विशुद्ध नहीं बनाता। उसमें आसक्ति बनी रहती है। स्वाधीन भोगों का जो विसर्जन है, वही वस्तुतः सच्चा त्याग है। वहां व्यक्ति का आकर्षण समाप्त हो जाता है भोगों के प्रति जो सहज अनाकर्षण है, वही वैराग्य है समाधि का अधिकारी विरक्त व्यक्ति है। इसीलिए इसे योग का मूल कहा है।
भोग बंधन है और योग मुक्ति । बंधन अवैराग्य है। इससे आत्मा का संपर्क साधा नहीं जाता। यह योग का सर्वथा विपक्षी है।
विषयों का त्याग वैराग्य से ही होता है। जो विषयों का त्याग कर देता है, उसके विषयों का ग्रहण नहीं होता और उनका ग्रहण न होने पर इन्द्रियां शांत हो जाती हैं।