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________________ संबोधि अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा का मूल कारण. परिग्रह है। परिग्रह शब्द के संकीर्ण बोध के कारण वह महान नहीं बना; किन्तु गहराई से देखा जाए तो 'परिग्रह का अर्थ है-मूर्छा, ममत्व।' हिंसा ममत्व के कारण ही होती है। एक संपन्न व्यक्ति भी मूर्छा-ममत्व के अभाव में अकिंचन हो सकता है और ममता के कारण एक अकिंचन भी परिग्रही हो सकता है। 'मुल्ला नसरुद्दीन का तीन चार चोरों से मुकाबला हो गया। चोरों ने कहा-तुम्हारे पास जो कुछ भी है वह सब रख दो, वरना मुश्किल होगी। मुल्ला भी हट्टा-कट्टा था वह हार मानने वाला नहीं था। काफी देर तक हाथापाई होती रही। आखिर चोरों ने उसकी जेब से पंच-दस- पैसे जो थे निकाल लिए। चोरों ने कहा-इतने से पैसों के लिए क्यों मारा-मारी पर उतरा ? मुल्ला ने कहा-तुम्हारे लिए ये इतने ही है, मेरे लिए तो बहुत हैं। ममत्व अर्थात् मूर्छा उसका दायरा बड़ा विस्तृत है। वह शरीर, वस्त्र, मकान, धन-संपत्ति, परिवार आदि सब पर फैली हुई है। शरीर मूर्छा-ममत्व का मूल केन्द्र है। इसको स्पष्ट बोध सबको है। शरीर की सुरक्षा के लिए सब गौण हो जाते हैं। भगवान महावीर ने कहा-'से ह दिट्ठपहे मुणी' उसी मुनि ने मार्ग का देखा है जिसने ममत्व का विसर्जन कर दिया है। बुद्ध कहते हैं-जो तृष्णा से मुक्त हो जाता है वह मुक्त हो जाता है। जहां ममत्व नहीं है वहीं अहिंसा है। 'देहोऽहमिति या बुद्धिरविद्या सा प्रकीर्तिता। नाहं देहश्चिदात्मेति, बुद्धिर्विद्येति भण्यते॥' ... "मैं शरीर हूं' इस प्रकार की बुद्धि को अविद्या कहा है। मैं शरीर नहीं, चित्स्वरूप आत्मा हूं-इस भेदविज्ञान को विद्या कहा है। भेदविज्ञान धर्म का प्रथम चरण है और यही अंतिम चरण। जब इसका स्पष्ट बोध हो जाता है तब ममत्व की सघन ग्रंथि शिथिल हो जाती है। देह के उस पार जो परम तत्त्व अवस्थित है, उसका दर्शन हो जाता है। उसके दर्शन से हृदय ग्रंथि का भेदन हो जाता है, संशयों का उच्छेद हो जाता है। कहा है-'भिद्यते हृदयग्रंथि श्च्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।' हिंसा का कारण भी समाप्त हो जाता है। . भेदविज्ञान का अर्थ है-शरीर तथा पदार्थ को अपनी आत्मा से अलग अनुभव करना। आत्मा चेतन है, शरीर आदि पदार्थ पौद्गलिक है, भौतिक है, जड़ है। आत्मा से इनका संबंध क्षणिक है, अस्थायी है। आत्मा अमृत है, शरीर आदि मरणशील है। शरीरजनित बाल, युवा वृद्ध आदि दशाएं चेतन की नहीं, शरीर की हैं। यह भेदविज्ञान ही आसक्ति के बंधन को तोड़ता है, धर्म को मूर्तिमान करता है और चेतन आत्मा को आत्मा में प्रस्थापित करता है। मेघ यह आशंका करता है कि 'शरीर अलग है और आत्मा भिन्न है' इस तथ्य को सब जानते हैं, किन्तु मैं देखता हूं, उनकी आसक्ति कम नहीं होती है, वे उसी में अनुरक्त रहते हैं। ऐसा क्यों होता है ? .. प्रश्न सटीक है। देखने में ऐसा ही आता है। लेकिन इसके पीछे जो दृष्टि है, वह साफ नहीं है। ज्ञान के दो स्तर हैं-एक बौद्धिक और दूसरा चैतसिक, आत्मिक। बौद्धिक स्तर का ज्ञान केवल सूचनापरक या जानकारी- परक होता है। उससे रूपांतरण घटित नहीं होता। चेतनास्तरीय ज्ञान से ही परिवर्तन घटित होता है। वह सीधा हृदय में उतरता है। शब्द का बाण जब हृदय को बींध देता है तब व्यक्ति परिवर्तित हुए बिना नहीं रहता। भेदविज्ञान चेतना के स्तर पर होता है तब वह सार्थक होता है। सम्यक् आचरण का अर्थ भी यही है कि जो ज्ञान आचार-व्यवहार में आ जाए। सम्यग् ज्ञान की लौ जब प्रज्वलित होती है तब वह आचार-व्यवहार को भी प्रकाशित कर देती है। ज्ञान, दर्शन और आचार की समन्वित अवस्था में ही चेतना का विकास होता है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' इस सूत्र में ज्ञान और कर्म की एकात्मकता की सूचना है। बौद्धिक ज्ञान की पहुंच बुद्धि तक सीमित रहती है, आत्मिक ज्ञान वहीं नहीं रुकता, वह समग्र जीवन पर छा जाता है, समग्र जीवन को प्रभावित करता है। मेघः प्राह २९.पुद्गलान् आत्मनो भिन्नान्, जानन्नप्येषु रज्यति। स्वामिन् ! आत्मा से पुद्गल भिन्न हैं, यह जानते हए भी , किमत्र कारणं स्वामिन्! दृष्टिं मे निर्मलां कुरु॥ ___मनुष्य पुद्गलों में आसक्त होता है। इसका क्या कारण है? आप मेरी दृष्टि को निर्मल बनाएं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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