SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-३ जीवन का ध्येय नहीं मानता। जहां पदार्थ जीवन का साध्य होता है वहां संग्रह, चोरी आदि का प्रश्न खड़ा होता है। साधक-धार्मिक व्यक्ति के लिए वे अकिंचित्कर हो जाते हैं। भोग शरीर की पूर्ति है। जागरूक साधक शनैः शनै आत्मा की ओर आरोहण करता है। वह आत्म-भोग में डूबने लगता है। उसी में सतत विहार करने लगता है। तब ब्रह्मचर्य का फूल स्वतः खिल उठता है। ब्रह्म जैसी चर्या या ब्रह्म में गतिशीलता हो जाती है। ब्रह्मचर्य का वास्तविक आनंद ब्रह्म-बिहार के बिना कैसे संभव हो सकता है ? केवल संयोग से मुक्त हो जाना ब्रह्मचर्य नहीं है। वह सिर्फ बाह्य है। ब्रह्मचर्य तब सुगंधित होता है जबकि अंतर आनंद का कोई प्रसून प्रस्फुटित हुआ हो। अब्रह्मचर्य हेय है और ब्रह्मचर्य उपादेय है-इतना जान लेने मात्र से न अब्रह्मचर्य छूटता है और न ब्रह्मचर्य अवतरित होता है। जीवन विकास के समस्त सूत्रों की सारभूत प्रक्रिया है-जीवन का प्रत्येक चरण सजगता से शून्य न हो। सजगता जीवन में मूर्तिमती हो। साधक का यही प्रथम कदम है और यही अंतिम। महावीर ने कहा है___-होशपूर्वक गति, स्थिति, बैठना, शयन, भोजन, भाषण आदि क्रियाएं करने वाला साधक पाप कर्म का बंधन नहीं करता। २४.सत्यमस्तेय ब्रह्मचर्यमेवमसंग्रहः। अहिंसाया हि रूपाणि, संविहितान्यपेक्षया॥ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये अहिंसा के ही रूप हैं। ये विभाग अपेक्षा दृष्टि से किए गए हैं। २५.अहिंसापयसः पालिभूतान्यन्यव्रतानि यत्। सापेक्षं वचनं गम्यं, यदक्तं परमर्षिभिः॥ सत्य आदि व्रत अहिंसा-जल की सुरक्षा के लिए पालि या सेतु के समान हैं। महर्षियों की यह उक्ति सापेक्ष है। अपेक्षा की दृष्टि से सत्य, अपरिग्रह आदि से भी सब व्रतों का समावेश किया जा सकता है। २६.अहिंसा परमो धर्मः, नयापेक्षमिदं वचः। कारणापेक्षया मूलं, हिंसायाः स्यात् परिग्रहः॥ 'अहिंसा परम धर्म है'-यह नयसापेक्ष वचन है-अहिंसा का महत्त्व प्रदर्शित करने के लिए इसका प्रयोग किया गया है। हिंसा का मूल कारण परिग्रह है। २७. वस्तुतः परमो धर्मः अपरिग्रह इष्यते। यत्राऽपरिग्रहस्तत्र, स्यादहिंसा निसर्गजा॥ वास्तव में अपरिग्रह परम धर्म है।,जहां अपरिग्रह है-ममत्व का विसर्जन है वहां अहिंसा निसर्ग से है। २८.ममत्वं येन व्युत्सृष्टं, दृष्टोऽध्वा तेन निश्चितम्। भेदविज्ञानमाद्यं स्याद्, सोपानं धर्मसन्ततेः॥ जिसने ममत्व को छोड़ दिया, उसने अवश्य ही पथ को देखा है। भेद-विज्ञान-आत्मा और पदार्थ की भिन्नता का बोध-धर्म की परंपरा का प्रथम सोपान है। ॥ व्याख्या ॥ धर्म के विविध भेद अपेक्षा से है। कहीं तीन भेद हैं, कहीं पांच भेद हैं, कहीं चार हैं, कहीं दस हैं और कहीं उससे भी अधिक हैं। इनमें कहीं विरोध नहीं है, ये सब सापेक्ष हैं। एक में सब हैं और सबमें एक है। जैसे-जैसे चित्त की निर्मलता बढ़ती है, भीतर का ज्ञान प्रस्फुटित होता है तब विषमता स्वतः ही निर्मूल हो जाती है। एक की सुरक्षा के लिए अन्य सब व्रत हैं। एक खंडित होता है तो अन्य भी खंडित हो जाते हैं। सब परस्पर अनुस्यूत हैं। . भगवान महावीर ने अहिंसा को प्रधानता दी महात्मा बुद्ध ने करुणा को प्रधान माना। गीता ने अनासक्ति को महत्ता दी। गांधीजी ने सत्य को आधार बनाया। ईसा ने प्रेम की बात कही आदि आदि। ये सब नय दृष्टि के आधार पर है। जिसको मुख्यता-महत्ता देनी है उस पर हमारा ध्यान विशेष आकृष्ट होता है, अन्य पर नहीं। अहिंसा पर बल देने के कारण ही 'अहिंसा परमोधर्मः' की सूक्ति प्रचारित हो गई। वस्तुतः देखा जाए तो अपरिग्रह परम धर्म है। हिंसा
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy