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संबोधि .
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अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा २२. श्रुतं चारित्रमेतच्च, व्यङ्गः त्र्यङ्गः सदर्शनः। धर्म के दो, तीन, चार और पांच अंग-विभाग भी किए जाते सतपश्चतुरङ्गः स्यात्, पञ्चाङ्गो वीर्यसंयुतः॥ हैं- १. श्रुत-ज्ञान और चारित्र-यह दो अंग वाला धर्म है। २. ज्ञान,
चारित्र और दर्शन-यह तीन अंग वाला धर्म है। ३. ज्ञान, चारित्र, दर्शन और तप-यह चार अंग वाला धर्म है। ४. ज्ञान, चारित्र, दर्शन, तप और वीर्य-यह पांच अंग वाला धर्म है।
॥ व्याख्या ॥ ज्ञान-ज्ञान का अर्थ यहां आत्म-बोध है, इन्द्रिय-ज्ञान नहीं। चारित्र-हेय का परित्याग कर उपादेय का आचरण करना। विजातीय संग्रह से स्वयं को पूर्णतया रिक्त करना। दर्शन-तत्त्वों के प्रति दृढ़ आस्था, सत्य का साक्षात्कार। तप-आत्मा से विजातीय पदार्थ का बहिष्कार करने के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, उस धर्म का नाम तप है। वीर्य-आत्म-साक्षात्कार के लिए शक्ति का विशुद्ध प्रयोग करना।
२३.हिंसैव विषमा वृत्तिः, दुष्प्रवृत्तिस्तथोच्यते। जितनी हिंसा है उतनी ही विषम वृत्ति या दुष्प्रवृत्ति है। जितनी .. अहिंसा साम्यमेतद्धि, चारित्रं बहुभूमिकम्॥ अहिंसा है, उतना ही साम्य है और जो साम्य है, वही चारित्र है।
उसकी अनेक भूमिकाएं हैं।
॥ व्याख्या ॥ हिंसा प्राणों का वियोजन करना ही नहीं है, राग और द्वेषात्मक प्रवृत्ति भी हिंसा है। प्राणों के वियोजन को ही यदि हिंसा मानें तो कोई भी व्यक्ति पूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता। संयत अवस्था में भी हिंसा संभव है। आज के युग में तो अहिंसा और भी कठिन है, जबकि विश्व कीटाणुओं से आक्रांत है। वे हमारे शरीर में प्रविष्ट होते हैं। उनकी हिंसा से कौन कैसे बच सकता है ? इसलिए पूर्ण अहिंसक की केवल कल्पना ही रह जाती है। गति और स्थिति मनुष्य का धर्म है। इनके कारण वह न चाहता हुआ भी कभी-कभी प्राणों के अतिपात का निमित्त बन जाता है। उस दशा में हम उसे हिंसक कहें या अहिंसक? जैन आचार्यों ने इस जिज्ञासा का समाधान बड़े यौक्तिक ढंग से दिया है। स्वयं भगवान् महावीर के सामने जब यह प्रश्न आया तब उन्होंने हिंसा और अहिंसा के चार विकल्प कर समाधान प्रस्तुत किया१. द्रव्यतः हिंसा और भावतः अहिंसा।
२. भावतः हिंसा और द्रव्यतः अहिंसा। .... ३. द्रव्यतः हिंसा और भावतः हिंसा।
४. द्रव्यतः अहिंसा और भावतः अहिंसा। . इसमें प्रथम और चतुर्थ दो विकल्प अहिंसा की श्रेणी में चले आते है, और शेष दो हिंसा की। परवर्ती साहित्य में भी इसका स्पष्टीकरण है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि केवल प्राण-वियोजन ही हिंसा नहीं है। हिंसा है-प्रमाद, कषाय, राग आदि। इनके अभाव में प्राण-वियोजन हिंसा नहीं है। प्रमाद आदि की विद्यमानता में प्राण वियुक्त न होने पर भी हिंसा है। निष्कर्ष की भाषा में यह है कि प्रमाद हिंसा है और अप्रमाद अहिंसा है। प्रमाद विषमता है, दुष्प्रवृत्ति है, अनुपयोगात्मक दशा है और अप्रमाद समता है, सत्-प्रवृत्ति है और उपयोगात्मक दशा है।
साधना का मुख्य लक्ष्य कर्म-प्रकृति को बदलना नहीं, किन्तु कर्म के स्रोत को बदलना है। जागरूकता का संवर्द्धन कर्म-आवरण को स्वतः ही बदल देता है, आचरण स्वतः बदल जाते हैं। जैसे-जैसे साधक शरीर के प्रति जागरूक होता है वैसे-वैसे क्रमशः शरीर और मन की वृत्तियों के प्रति भी सजगता बढ़ती जाती है। आचरण से पहले ही वह सचेत हो जाता है कि मैं क्या कर रहा है? क्या सोच रहा हं? क्या बोल रहा हं आदि-आदि।
सत्य, अस्तेय आदि आचरण हैं। इन्हें अलग से साधने में बड़ी कठिनाइयां हैं। व्यक्ति के बदलने के साथ ही इनमें परिवर्तन आ जाता है। सजगता का अभ्यासी साधक असत्य ही नहीं बोलता, किंतु असत्य के आस-पास की सभी सीमाओं को पार कर देता है। वह संयत, प्रिय, सत्य, यथार्थ और हितैषी भाषण से युक्त हो जाता है। इसके साथ-साथ कहां नहीं बोलना-मौन रहना यह भी वह जान लेता है।
वस्तुओं के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण नहीं रहता। वह वस्तुओं की उपादेयता स्वीकार करता है, किन्तु उन्हें