SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन १९२ खण्ड - ३ भागवत में कहा है - सर्वव्यापी भगवान् केवल दानवीय शक्तियों का विनाश करने के लिए ही नहीं अपितु मयों मनुष्यों को शिक्षा देने के लिए भी प्रकट होते हैं। २१. मुक्तेरयमुपायोऽस्ति, योगस्तेनाभिधीयते । अहिंसाऽऽत्मविहारो वा, स चैकाङ्गः प्रजायते ॥ यह धर्म मुक्ति का उपाय है, इसलिए यह योग कहलाता है। भिन्न-भिन्न दृष्टियों से धर्म के अनेक विभाग होते हैं। जहां उसके और विभाग नहीं किए जाते, वहां अहिंसा या आत्म-विहार को ही धर्म कहा जाता है। यह एक अंग वाला धर्म है। ॥ व्याख्या ॥ योग शब्द यहां उस साधना पद्धति का प्रतीक है जिसके माध्यम से व्यक्ति चेतना के सर्वोच्च शिखर को छू लेता है। योग का अर्थ है-भेद से अभेद में प्रवेश करना, द्वैत से अद्वैत का साक्षात्कार करना, विजातीय से सजातीय का अनुभव करना । योग के आठ अंग हैं ९. यम २. नियम ३. आसन ४ प्राणायाम ५ प्रत्याहार ६. धारणा ७. ध्यान और. ८. समाधि । इस व्यवस्था क्रम में शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य का सम्यग् अवबोध है। शरीर और मन की स्थिति पर व्यक्ति खड़ा है। इसलिए साधना का प्रवेश द्वार शरीर है। शरीर की रोगग्रस्त स्थिति में आत्मा की स्मृति संभव नहीं है । सारा ध्यान बीमारी अपनी तरफ खींचती रहती है, इस स्थिति में मन आत्मा का स्मरण कैसे कर सकता है ? अतः आसन, प्राणायाम आदि के द्वारा शरीर को ध्यान, समाधि के योग्य रखना अपेक्षित है मुख्य बात इतनी ही है। कि चाहे किसी भी योग पद्धति को हम स्वीकार करें किन्तु येन-केन प्रकारेण शरीर का स्वास्थ्य नितांत उपादेय है। उसके साथ-साथ या पश्चात् चित्त का निर्माण आवश्यक है । चित्त में जो वासना, संस्कार, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि का कूड़ा जमा है उसे निकाल फेंकना होता है चित्तशुद्धि के अभाव में परमात्मा का अवतरण प्रकटीकरण असंभव है। एक बहिन ने एक दिन संन्यासी से पूछा- 'महात्माजी परमात्मा का दर्शन कैसे हो? बहुत प्रयत्न करती हूं कि शांति मिले, प्रभु का दर्शन हो।' संत ने कहा- 'अच्छा, कभी समय आने पर बताऊंगा।' एक दिन संत भिक्षा के लिए पुनः आये। बहिन भिक्षा देने लगी तब देखा पात्र गंदा है। वह बोली- 'भिक्षा गंदी हो जाएगी, पात्र गंदा है' संत ने कहा- 'उस प्रश्न का उत्तर है यह । तुम देखो, पात्र गंदा हो तब कैसे शांति मिले और कैसे परमात्मा का अवतरण हो ? बस, पात्र शुद्ध कर लो परमात्मा की झांकी स्वतः ही मिल जाएगी।' चित्त पात्र को परमात्मा के अवतरण के लिए पूर्णतया शुद्ध करना होता है। स्वभाव-धर्म शुद्ध चित्त में प्रतिबिंबित होता है। - योग की अनेक शाखाएं हैं, जैसे-हठयोग, राजयोग मंत्रयोग, लययोग आदि। इनकी अनेक अवान्तर शाखाएं भी हैं। सभी का ध्येय है- आत्मा का पूर्ण विकास। अहिंसा यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का एक अंग है। संक्षेप में शेष सब अहिंसा की परिक्रमा करते हैं, इसलिए मुख्यतया इसे ही मुक्ति का अनन्य अंग माना है। ऐसे तो जितने ही साधन हों वे सब सत्य से अनुस्यूत हो तो सब मुक्ति के ही अवयव हैं। अहिंसा में शेष विभागों का इसलिए समावेश हो जाता है कि अहिंसा पूर्ण जागरूकता की स्थिति है। अहिंसा का साधक बेहोशी को स्वीकार नहीं कर सकता। होश की लौ उसे प्रतिक्षण जलाए रखनी होती है जहां होश है वहां हिंसा, असत्य को कैसे अवकाश मिल सकता है ? होश से ही स्व-स्मृति का दीप जल उठता है। होश ही प्रार्थना है। उर्दू के किसी शायर की वाणी है 'माइले दैरो हरम तूने यह सोचा भी कभी जिंदगी खुद ही इबादत है अगर होश रहे । ' ‘ओ मंदिर मस्जिद की तरफ झुकने वाले ! क्या तूने इस पर कभी विचार किया है कि अगर होश- सावधनता हो तो जिंदगी खुद ही प्रभु की प्रार्थना है। आचार्य हरिभद्र उसी अप्रमत्तता - जागरूकता को ध्यान में रखते हुए कहते हैं-'संयत - सोपयुक्त साधकों का समस्त व्यापार योग है, क्योंकि वह मोक्ष से योग कराता है। १. विस्तार के लिए देखें १२वां अध्याय तथा परिशिष्ट ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy