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संबोधि.
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अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा
॥ व्याख्या ॥ . अहिंसा का अपना गुण है, अपना कार्य है और हिंसा का अपना। हिंसा और अहिंसा-दोनों के दो मार्ग हैं। अहिंसा स्वभाव-स्वगुण की संरक्षिका है, पर पदार्थों की नहीं। पर का स्वीकरण, संवर्धन और संरक्षण अहिंसा से संभव नहीं। अहिंसक अपनी सुरक्षा का प्रमाण प्रस्तुत कर सकता है। वह जानता है कि मेरी रक्षा बाहर से नहीं होती। बाहर से शरीर को और पदार्थों को बचाया जा सकता है, किन्तु चेतना को नहीं। और जिसे हम बाहर से सुरक्षित करते हैं वह भी सदा के लिए नहीं। यह सब जानते हैं कि जो कुछ है वह एक दिन विनष्ट होने वाला है।
यूनान के सम्राट ने एक महान् साधक से पूछा-आप कहते हैं-'आत्मा अमर हैं। इसका प्रमाण क्या है ?' साधक ने कहा-'मैं स्वयं उपस्थित हूं।' सम्राट् समझा नहीं। फिर पूछा। साधक ने कहा-'और प्रमाण मैं क्या दे सकता हूं?' सम्राट् ने उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करवाए और साधक प्रत्येक टुकड़े के साथ यह प्रमाण प्रस्तुत करता रहा कि शरीर खंडित हो रहा है, किन्तु मैं अब भी पूर्ण हूं। मेरा कुछ भी नष्ट नहीं हो रहा है।
नमि राजर्षि के सामने मिथिला नगरी अग्नि की लपटों में जल रही है। वे कहते हैं-'मेरा जो कुछ है वह मेरे पास है, सुरक्षित है। न उसे अग्नि जला सकती है, न पानी बहा सकता है और न शस्त्र छेद सकते हैं। जो मेरा नहीं है उसे अग्नि जला सकती है, पानी गला सकता है। मिथिला के जलने पर मेरा कुछ नहीं जलता। • यह है 'पर' पदार्थों से अपने को पृथक् देख लेना।
__जहां अपनापन है, ममत्व है, वहीं आसक्ति है, बंधन है। ममत्व-मुक्ति के पश्चात् चिंता का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। पदार्थ विद्यमान है तो प्रसन्नता है और न है तब भी प्रसन्नता है। प्रसन्नता पदार्थों की जहां सहगामिनी होती है वहां उनके विनष्ट होने पर दुःख की सहगामिनी भी हो जाएगी। किन्तु जो निरपेक्ष प्रसन्नता है उसे कोई नहीं छीन सकता। अहिंसा और हिंसा के गुण-धर्मों से परिचित होना अत्यंत आवश्यक है। २०.अतीतै विभिश्चापि, वर्तमानैः समैजिनैः। जो तीर्थंकर हो चुके, होंगे या हैं, उन सबने इसी अहिंसा धर्म सर्वे जीवा न हन्तव्या, एष धर्मो निरूपितः॥ का निरूपण किया है। उनका उपदेश है-किसी भी जीव का हनन
मत करो।
॥ व्याख्या ॥ इस श्लोक में कहा गया है कि अहिंसा धर्म का प्रतिपादन अनादिकाल से होता रहा है और उसके प्रणेता आत्म-साक्षात्कारी रहे हैं।
धर्म के प्रणेता अमुक ही हैं-ऐसा ही हैं-ऐसा कथन करने वाले धर्म की शाश्वतता और सार्वकालिकता का खंडन करते हैं। अहिंसा धर्म का स्रोत है। वह अनेक रूपों में प्रवाहित होता आया है और रहेगा। वह अनादि है, ध्रुव है, नित्य है। धर्म का आलोक जब क्षीण होने लगता है, तब कोई विशिष्ट महापुरुष उसको फिर से प्रज्वलित करता है, इतिहास इसका प्रमाण है। मिलिन्द कहता है कि बुद्ध ने उस प्राचीन मार्ग को ही फिर खोजा है, जो बीच में लुप्त हो गया था। जब बुद्ध भिक्षु के वेश में हाथ में भिक्षा-पात्र लिए भिक्षा मांगते हुए अपने पिता की राजधानी में वापस लौटते हैं तो उनका पिता पूछता है-यह सब क्यों? उत्तर मिलता है-पिताजी! यह मेरी जाति की प्रथा है। राजा आश्चर्य से पूछता है-कौन-सी जाति? तब भिक्षु उत्तर देते हैं-बुद्ध जो हो चुके हैं और जो होंगे, मैं उन्हीं में से हूं। और जो उन्होंने किया, और यह जो अब हो रहा है पहले भी हुआ था कि इस द्वार पर एक कवचधारी राजा अपने पुत्र से मिले, राजकुमार से, जो तपस्वी वेश में हो। इस बात को समझ लो कि समय-समय पर ऐसा तथागत संसार में जन्म लेता है जो पूरी तरह ज्ञान से प्रकाशित होता है। वह पवित्र और योग्य होता है। उसमें ज्ञान और अच्छाई प्रचुर मात्रा में भरी होती है। वह लोकों के ज्ञान के कारण प्रसन्न रहता है। पथ-भ्रष्ट मयों के लिए वह अद्वितीय मार्गदर्शक होता है। वह देवताओं और मनुष्यों का गुरु होता है।
जैन परंपरा भी यही मानती है कि तीर्थकर किसी एक काल या एक देश में नहीं होते। वे समय-समय पर आते हैं और सत्य का उद्घाटन कर जन-मानस को उस ओर प्रेरित करते हैं। उनका आदि, मध्य और अंत सुन्दर होता है। सभी अहिंसा आदि शाश्वत तथ्यों का अपने-अपने वातावरण के अनुसार जन-भोग्य पद्धति में उपदेश देते हैं। उसमें शब्द-भेद होते हुए भी अर्थ का अभेद होता है।