SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का दर्शन १९० ॥ व्याख्या ॥ 1 भय का प्रमुख कारण है-जिजीविषा शरीर के प्रति अनंत जन्मों का मेरेपन का भाव बना हुआ है 'देहोहमिति या बुद्धिरविद्या सा निगद्यते ' - मैं शरीर हूं' - यह भाव अविद्या है। अहिंसा की वास्तविक अनुभूति और आचरण अविद्या के नष्ट होने पर ही होता है जब तक अविद्या बनी रहती है तब तक भय का सर्वधा निःशेष होना कठिन है अहिंसा को साधने के लिए अभय होना आवश्यक है। अभ्यास काल में साधना का लक्ष्य है-अभय और सिद्ध हो जाने पर वह स्वयं तदात्मस्वरूप हो जाता है। अभय के सिद्ध हो जाने पर अहिंसा को पृथक् रूप से साधने की अपेक्षा नहीं रहती । मृत्यु, बुढापा, रोग आदि का भय यह व्यक्त करता है कि प्राणी जीना चाहते हैं। मरना सबसे बड़ा भय है, किन्तु वस्तुवृत्त्या हम उसके अंतस्तल में प्रविष्ट होंगे तो वहां भी जीवनेच्छा ही दृष्टिगत होगी। क्योंकि उस मरने की मांग के पीछे भी कष्ट है, यथार्थता नहीं है। महावीर ने कहा है- जब तुम मृत्यु और जीवन की एषणा से मुक्त हो जाओ तब तुम चाहे जीओ या मरो, तुम्हारे लिए कोई महत्वपूर्ण नहीं है। प्रस्तुत पद्यों में अहिंसा और अभय की सिद्धि की प्रक्रिया प्रस्तुत की है। उसे साध लेने पर अभय और अहिंसा स्वतः सिद्ध हो जाती है। कोई भी व्यक्ति बिना केन्द्र को पकड़े सर्वथा अभय नहीं होता। बाहर से सब कुछ छोड़ता जाए, भीतर कुछ उपलब्ध न हो तो व्यक्ति निराश होकर उसे ही छोड़ देता है। 'डेविड ह्यूम' ने डेल्फी के पवित्र मंदिर पर लिखा देखा - Know the Self- अपने को जानो। वह भीतर गया अपने को जानने के लिए। उसे भीतर सिवाय क्रोध, घृणा, प्रेम, द्वेष, राग आदि के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। भीतर प्रवेश करना उसने छोड़ दिया। इसलिए यहां कहा है-'बाहर की पकड़ ढीली करो, बाहर कुछ भी मत पकड़ो। जितनी सुरक्षा बाहर खोजोगे उतना ही भय, दुःख, अशांति अधिक होगी । भय से मुक्त होने के लिए भीतर उतरो । उस केन्द्र को खोजो जो शाश्वत है। उस केन्द्र से परम प्रीति जब स्थापित होती है तब जो है उसका अनुभव होता है और उसी अनुभूति के साथ भय विलीन हो जाता है। 'मैं अजन्मा हूं', 'मैं अभय हूं' सिर्फ ऐसा चिंतन ही नहीं करना है, अनुभूति के जगत् में भी प्रवेश करना है। जैसे ही व्यक्ति आत्मवान् बनता है वैसे ही वह देखता है जो मैं हूं वही सर्वत्र है, भेद तो सिर्फ देह का है। पानी की विविधता से सूर्य के प्रतिबिंब में क्या फर्क पड़ सकता है? वह वैसा ही है जैसा निर्मल आकाश आत्मा की एकत्व अनुभूति में हिंसा का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। उसका अंतःकरण कलुषता, घृणा, राग, द्वेष, मोह, ममत्व से विमुक्त हो जाता है। स्वगुणों का प्रवाह प्रतिक्षण प्रवाहित होने लगता है। १७. स्वं वस्तु स्वगुणा एव तस्य संरक्षणक्षमाम् । अहिंसां वत्स ! जानीहि तत्र हिंसाऽस्त्यकञ्चना ॥ खण्ड-३ १८. ममत्वं रागसम्भूतं वस्तुमात्रेषु यद् भवेत् । सा हिंसाऽऽसक्तिरेचैव जीवोऽसौ बध्यतेऽनया ।। १९. ग्रहणे परवस्तूनां, रक्षणे परिवर्धने । अहिंसा क्षमतां नैति सात्मस्थितिरनुत्तरा ॥ || व्याख्या || हिंसा मनुष्य का स्वधर्म नहीं है, विधर्म है। अहिंसा स्वधर्म है। पर धर्म में प्रवेश करने की अपेक्षा स्वधर्म में मृत्यु भी अच्छी है। यह आलोक स्वरूप है। जो जिसका गुण है, वह उसी की सुरक्षा कर सकता है, दूसरा नहीं । हिंसा हिंसा को बढ़ावा देती है और हिंसा की ही रक्षा करती है। उसके शस्त्र एक से एक बढ़कर उत्पन्न होते रहते हैं। अहिंसा में यह नहीं है। उससे आत्मगुण को पोषण मिलता है। वह उसे बढ़ाती है और रक्षा भी करती है। , अपना गुणात्मक स्वरूप ही अपनी वस्तु है। वत्स अहिंसा उसका संरक्षण करने में समर्थ है। आत्म-गुण का संरक्षण करने में हिंसा अकिंचित्कर है, व्यर्थ है। वस्तु मात्र के प्रति मत्वराग से उत्पन्न होता है, वह हिंसा है और वही आसक्ति है। उसी से यह आत्मा आबद्ध होती हैं। पर वस्तु- पौद्गलिक पदार्थ के ग्रहण, रक्षण और संवर्धन करने में अहिंसा समर्थ नहीं है क्योंकि वे सब आत्मा से भिन्न अवस्थाएं हैं और अहिंसा आत्मा की अनुत्तर अवस्था है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy