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________________ १८९ संबोधि १०. स्वगुणे - स्वत्वधीर्यस्य, भयं तस्य न जायते । परवस्तुषु यस्यास्ति, स्वत्वधीः स भयं नयेत् ॥ ॥ व्याख्या ॥ आत्म-गुणों में विचरण करने वाला साधक अभय बन जाता है। उसका अपनापन आत्मा में ही होता है, बाहर नहीं। वह देखता है - मैं ज्ञानस्वरूप हूं, मैं दर्शनस्वरूप हूं, मैं आनंद-स्वरूप हूं और मैं सम्पूर्ण शक्ति सम्पन्न हूं। मेरी निधि यही है, इसे छीननेवाला कोई नहीं है। शरीर, परिजन, अर्थ आदि ये सब मेरे से भिन्न हैं। ऐसा सोचने वाला मृत्यु से भी अभय रहता है। वह गा उठता है - मेरी मृत्यु नहीं है, मैं अमर हूं। मुझे भय किसका है। मैं नीरोग हूं ! रोग शरीर का धर्म है। फिर मैं क्यों व्यथित बनूं ! बचपन, यौवन और वृद्धत्व भी शरीर धर्म हैं। मैं आत्मा हूं। वह न वृद्ध है, न युवा है और न बालक है। जो व्यक्ति ऐसा चिंतन करता उसे कभी किसी से भय नहीं होता। जो व्यक्ति बाह्य पदार्थों को अपना मानता है, बाह्य संबंधों को अपना मानता है, उसे पग-पग पर भय रहता है। बाह्य पदार्थों के अर्जन और संरक्षण में उसे अनेक प्रकार के भय सताते रहते हैं। मेघः प्राह ११. न भेतव्यं न भेतव्यं, भीतो भूतेन गृह्यते । किमर्थमुपदेशोऽसौ भगवंस्तव विद्यते ॥ भगवान् प्राह १२. अभयं याति संसिद्धिं, अहिंसा तत्र सिद्ध्यति । अहिंसकोऽपि भीतोऽपि नैतद् भूतं भविष्यति ॥ १३. यथा सहाऽनवस्थानं, आलोकतमसोस्तथा । अहिंसाया भयस्यापि न सहाऽवस्थितिर्भवेत् ॥ १४. यो नाप्नोति भयं मृत्योः, न बिभेति तथा रुजः । जरसोर्नापवादेभ्यः, स एव स्यादहिंसकः ॥ अ. ५ : मोक्ष- साधन-मीमांसा जो आत्मीय गुणों में स्वत्व की बुद्धि रखता है, उसे भय नहीं होता। जो पर-पदार्थ में स्वत्व की बुद्धि रखता है, उसे भय होता है। १५. यस्यात्मनि परा प्रीतिः, यः सत्यं तत्र पश्यति । अस्तित्वं शाश्वतं जानन्, अभयं लभते ध्रुवम् ॥ १६.यः पश्यत्यात्मनात्मानं, सर्वात्मसदृशं निजम् । भिन्नं सदप्यभिन्नं च तस्याऽहिंसा प्रसिद्ध्यति ॥ मेघ ने कहा- भगवन्! आपने यह क्यों कहा- मत डरो, मत डरो। जो डरता है उसे भूत पकड़ लेते हैं। भगवान् ने कहा- जहां अभय सिद्ध होता है, वहां अहिंसा सिद्ध हो जाती है। एक व्यक्ति अहिंसक भी हो और भयभीत भी हो, ऐसा न कभी हुआ है और न होगा। जैसे प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही अहिंसा और भय एक साथ नहीं रह सकते। जो व्यक्ति मृत्यु, रोग, बुढापा और अपवादों से नहीं डरता, वही वास्तव में अहिंसक है। जिसकी आत्मा में परम प्रीति है, जो आत्मा में ही सत्य को देखता है, जो आत्मा के शाश्वत अस्तित्व को जानता है, वह निश्चित ही अभय हो जाता है। जो आत्मा से आत्मा को देखता है, सभी आत्माओं को अपनी आत्मा के समान देखता है, जो सभी आत्माओं को देहदृष्टि से भिन्न होने पर भी चैतन्य के सादृश्य की दृष्टि से अपनी आत्मा से अभिन्न मानता है, उसके अहिंसा सिद्ध हो जाती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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