________________
आत्मा का दर्शन . १८८
खण्ड-३ है जिससे व्यक्ति का मनोबल गिर जाता है। वह छोटी बातों में या सामान्य कष्टों में अपना संतुलन बनाए नहीं रख सकता। अधीर व्यक्ति अहिंसा की साधना के योग्य नहीं होता। भय हमारी अध्यात्म-शक्ति की क्षीणता का प्रतीक है। चिंता. क्रोध. ईर्ष्या और द्वेष इसके सहचारी हैं। इससे मनुष्य में नैतिकबल का स्फुटन नहीं होता। भय मन और शरीर-दोनों को प्रभावित करता है। मानसिक अस्वास्थ्य से शरीर अस्वस्थ होता है। डॉ. डोवर. का कहना है-'भय से चिंता होती है और चिंता व्यक्ति को उद्विग्न और हताश बना देती है। यह अपने पेट की नसों को प्रभावित करती है, पेट के अन्दर के पदार्थों को विषम कर देती है। फलस्वरूप उदरवण की उत्पत्ति हो जाती है।'
योगशास्त्र में लिखा है-'भय, चिंता, क्रोध, मद आदि मानसिक आवेगों से पुरुष का वीर्य पतला हो जाता है और स्त्री के रजो-विकार का रोग उत्पन्न हो जाता है।' चरक कहता है-'चिंता, शोक, भय, क्रोध आदि की अवस्था में किया हुआ पथ्य भोजन भी जीर्ण नहीं होता।'
अध्यात्मक-दृष्टि से देखें तो भय आत्म-पतन का बहुत बड़ा कारण है। भीत व्यक्ति को आत्म-दर्शन नही होता। वह हर स्थिति में सशंक रहता है। सर्वत्र उसे भूत ही भूत दिखाई देते हैं। शरीर और बाह्य पदार्थों पर उसका मोह बढ़ता जाता है। मूढ़ मनुष्य हिंसा का अवलंबन लेते हैं। इस प्रकार एक मूढ़ता से दूसरी मूढ़ता बढ़ती जाती है।
आत्मस्थ व्यक्ति सदा सावधान रहता है। वह न दूसरों को डराता है और न स्वयं डरता है। अभय दो और अभय बनो-यह उसका नारा है। अध्यात्म-विकास का प्रथम चरण है-अभय। अभय के बिना अहिंसा का अवतरण नहीं होता। अहिंसक बनने की शर्त है-अभय बनना।
.४. सत्त्वान् स एव हन्याद् यः, स्याद् भीरुः सत्त्ववर्जितः।
अहिंसाशौर्यसम्पन्नो, न हन्ति स्वं परांस्तथा।।
जीवों का हनन वही करता है जो भीरु और निवीर्य है। जिसमें अहिंसा का तेज है, वह स्वयं का और दूसरों का हनन नहीं करता।
५. नानाविधानि कष्टानि, प्रसन्नात्मा सहेत यः।
परानपीडयन् सोऽयं, अहिंसां वेत्ति नापरः॥
जो दूसरों को कष्ट न पहुंचाता हुआ प्रसन्नतापूर्वक नाना प्रकार के कष्टों को सहन करता है, वही व्यक्ति अहिंसा को जानता है, दूसरा नहीं।
६. अपि शात्रवमापन्नान्, मनुते सुहृदः प्रियान्।
अपि कष्टप्रदायिभ्यो, न च क्रुध्येन्मनागपि॥
अहिंसक अपने से शत्रुता रखने वालों को प्रिय मित्र मानता है और कष्ट देने वालों पर तनिक भी क्रुद्ध नहीं होता।
७. अप्रियेषु पदार्थेषु, द्वेषं कुर्यान्न किञ्चन।
प्रियेषु च पदार्थेषु, रागभावं न चोद्वहेत्॥
वह अप्रिय पदार्थों में किचित् भी द्वेष नहीं करता और प्रिय पदार्थों में अनुरक्त नहीं होता।
८. अप्रियां सहते वाणी, सहते कर्म चाप्रियम्।
प्रियाप्रिये निर्विशेषः, समदृष्टिरहिंसकः॥
वह अप्रिय वचन को सहन करता है और अप्रिय प्रवृत्ति को भी सहन करता है। जो प्रिय और अप्रिय में समान रहता है, वह समदृष्टि होता है। जो समदृष्टि होता है, वही अहिंसक है।
९. भयं नास्त्यप्रमत्तस्य, स एव स्यादहिंसकः।
अहिंसायाश्च भीतेश्च, दिगप्येका न विद्यते॥
अप्रमत्त को भय नहीं होता और जो अप्रमत्त होता है, वही अहिंसक है। अहिंसा और भय की दिशा एक नहीं होती-जो अभय नहीं होता, वह अहिंसक भी नहीं हो सकता। अहिंसक के लिए अभय होना आवश्यक है।