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________________ संबोधि. १८७ अ. ५ : मोक्ष-साधन-मीमांसा लिए व्याकुल हो उठा। उसने यह दृढ़ निश्चय किया कि उसी पूर्ण सुख को प्राप्त करना है। उसे यह ज्ञात नहीं है कि उसके उपाय क्या हैं ? उसकी जिज्ञासा की शांति के लिए भगवान ने कहा-सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र-यह रत्नत्रयी उसके साधन हैं। 'सदर्शन-ज्ञानवृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः' तीर्थंकरों ने इन को ही धर्म कहा है। स्वयं को जानना ही यथार्थ ज्ञान है। वह ज्ञान वस्तुतः ज्ञान नहीं है जिसके द्वारा अपना ज्ञान नहीं होता है। पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥ कबीर की दृष्टि में तथा अन्य सभी ऋषियों की दृष्टि में वही पंडित है, ज्ञानी है जिसने अपने भीतर के खुदा खुद को जान लिया है। यह ज्ञान पुस्तकों, शास्त्रों में प्राप्त नहीं होता। इसके लिए खुद साधक को ही खपना होता है, तपना . होता है और मरना होता है। यही ज्ञान व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करता है और वह आत्मज्ञाता बन जाता है। आत्मा को जानना ही ज्ञान है और आत्मा में दृढ़ निश्चय हो जाना ही दर्शन है। आत्मज्ञान और आत्मश्रद्धा के बाद सभी संशय निराकृत हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को कोई भी शक्ति पथ से विचलित नहीं कर सकती। ___ चारित्र का अर्थ है-जो विजातीय लत्त्व आत्मा के साथ संलग्न हैं, उनका निष्कासन करना। आत्मा को पूर्णरूपेण __ खाली कर देना। जब कर्म का संग आत्मा से छूट जाता है या वैसे कर्मों का चय नहीं होता है, वह स्थिति आत्मस्थता की है। आत्मा आत्मा में ही स्थित हो जाता है। यही चारित्र है। कर्मों के निष्कासन के अनेक साधन हैं। वे सभी साधन चारित्र के ही अंतर्गत हैं। वे साधन मोक्ष के प्रयोग बनते हैं। . ३. अहिंसालक्षणो • धर्मः, तितिक्षालक्षणस्तथा। .. यस्य कष्टे धृतिर्नास्ति, नाऽहिंसा तत्र सम्भवेत्॥ धर्म का पहला लक्षण है अहिंसा और दूसरा लक्षण है तितिक्षा। जो कष्ट में धैर्य नहीं रख पाता, वह अहिंसा की साधना नहीं कर पाता। ॥ व्याख्या ॥ मोक्ष साध्य है। धर्म साधन है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र धर्म है। आहेसा सम्यक् चारित्र की एक कड़ी है। दर्शन आत्मा का निश्चय कराता है। ज्ञान आत्म-स्वरूप का प्रतिभास कराता है और चारित्र उसमें रमण कराता है। अहिंसा और आत्मरमण दो नहीं हैं। अहिंसा के बिना चारित्र भी सम्यक् नहीं होता। .. अहिंसा अध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका है। उसी के आधार पर सब क्रियाएं फलवती बनती हैं। सभी धार्मिकों ने अहिंसा को परम धर्म कहा है। जिसने अहिंसा का परिज्ञान नहीं किया, उसने कुछ भी नहीं जाना है। ज्ञानी का सार यही है कि किसी की भी हिंसा न करे। दूसरों की हिंसा अपनी हिंसा है। उसके कंठस्थ किये हुए करोड़ों पद्य भूसे के समान निस्सार हैं, जो इतना भी नहीं जानता कि दूसरों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। स्मृति भी कहती है-किसी की हिंसा मत करो। ईसा कहते हैं-'धन्य हैं वे जो दयालु हैं क्योंकि वे ईश्वर की दया प्राप्त करेंगे।' कुरान शरीफ में लिखा है-'क्या इन्सान, क्या हैवान सबके साथ रहम का व्यवहार करो।' इस प्रकार अहिंसा सभी का मूल मंत्र रहा है। .. अहिंसा क्या है ? अहिंसा का शब्दार्थ है-हिंसा का निषेध। यह उसका निषेध रूप है। उसका विधिरूप .. है-प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, राग, द्वेष और मोह आदि का अभाव। राग-द्वेष हिंसा है, भले वह सूक्ष्म या स्थूल रूप .. में हो। अहिंसा वहां निखार नहीं पाती। अहिंसा की भूमिका को ओजस्वी बनाने के लिए आत्मा को पवित्र बनाना होता है। अपनी पवित्रता में अहिंसा सहज जगमगा उठती है। वहां सर्वत्र अपना ही दर्शन होता है। अहिंसक जैसे अपने को जानता है वैसे ही सबको जानता है। भगवान ने इसलिए कहा-'सब प्राणी दुःख से घबराते हैं अतः सभी अहि धर्म-मोक्ष की आधार-शिला अहिंसा है। अहिंसा धर्म का पहला लक्षण है और तितिक्षा दूसरा। . अहिंसा और तितिक्षा धर्म को अपूर्ण नहीं रहने देते। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। अहिंसा के अभाव में ' तितिक्षा-सहनशीलता नहीं होती और तितिक्षा के अभाव में अहिंसा नहीं होती। अधीरता हिंसा-प्रतिकार को जन्म देती है। हिंसा से भय, उद्वेग, विरोध, उत्तेजना आदि को बल मिलता है। इस प्रकार हिंसा की परंपरा लंबी हो चलती
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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