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________________ उद्भव और विकास ३७ अ. ४ : अर्हत् पार्श्व ८. तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए' अणगारे जाए- पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने संयमपूर्वक ईर्यासमिति इरियासमिए जाव अप्पाणं भावमाणस्स तेसीइं यावत् कायगुप्तियुक्त होकर अपनी आत्मा को भावित - राइंदियाइं विइक्कंताई चउरासीइमस्स राइंदियस्स करते हुए ८३ दिन-रात व्यतीत हो गए। चौरासीवें दिन अंतरा वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं पढमे मासे चैत्र कृष्णा चतुर्थी को दिन के पूर्वार्ध में आंवले के वृक्ष के पढमे पक्खे-चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स नीचे षष्ठ भक्त (बेले का तप) में शुक्लध्यान की चउत्थी-पक्खेणं पुव्वण्हकालसमयंसि धायइ- अवस्था में विशाखा नक्षत्र में अनंत अनुत्तर निर्व्याघात, पायवस्स अहे छठेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं निरावरण केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ और सम्पूर्ण नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं झाणंतरियाए वट्ट- लोकालोक के भावों को जानते हुए देखते हुए विचरण माणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे करने लगे। कसिणे पडिपण्णे केवलवरनाणदंसणे समप्पन्ने जाव सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरइ॥ अर्हत् पार्श्व : उत्कृष्ट संपदा ९. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्ठ गण- हरा होत्था, तं जहा संभे य अज्जघोसे य. वसिटठे बंभयारि य। . सोमे सिरिहरे चेव, वीरंभहे जसे वि य॥ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के आठ गण तथा आठ गणधर हुए १. शंभ २. अज्जघोष-आर्यघोष ३. वसिष्ठ ४. ब्रह्मचारी ५. सोम ६. श्रीधर ७. वीरभद्र ८. यश। १०. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अज्ज- . पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के आर्यदत्त आदि १६००० दिण्णपामोक्खाओ सोलस समणसाहस्सीओ श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमण संपदा थी। उक्कोसिया समणसंपया होत्था॥ .११. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स पुप्फ चूलापामोक्खाओ अद्रुतीसं अज्जिया-साहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था॥ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के पुष्पचूला आदि ३८००० आर्यिकाओं (श्रमणियों) की उत्कृष्ट श्रमणी सम्पदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के सुनन्द आदि १६४००० श्रमणोपासकों की उत्कृष्ट श्रमणोपासक संपदा थी। १२. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुनंदपामोक्खाणं समणोवासगाणं एगा सयसाहस्सी चउसदिठं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासगसंपया होत्था॥ १३. पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स सुनंदा- पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के सुनन्दा आदि ३२७००० पामोक्खाणं समणोवासिगाणं तिन्नि सयसाहस्सीओ श्रमणोपासिकाओं की उत्कृष्ट श्रमणोपासिका संपदा थी। सत्तावीसं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासियाणं संपया होत्था॥
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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