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________________ खण्ड-१ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व को जन्म दिया। आत्मा का दर्शन मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं विइक्कंताणं पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयंसि विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमवाएणं 'आरोगा आरोग' दारयं पयाया। जम्मणं सव्वं पासाभिलावेणं भाणियव्वं जाव तं होउणं कुमारे पासे नामेणं॥ ५. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए दक्खे दक्खपइण्णे पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व दक्ष थे, दक्षप्रतिज्ञ थे, भद्र व पडिरूवे अल्लीणे भइए विणीए वीसं वासाइं विनीत थे। तीस वर्ष तक घर में रहे। लोकान्तिक देवों ने अगारवासमझे वसित्ता पुणरवि लोयंतिएहिं अपनी परंपरा के अनुसार इष्ट, कान्त शब्दों में कहा-'हे जयकप्पिएहिं देवेहिं ताहिं इट्ठाहिं जाव एवं नन्द! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे भद्र! तुम्हारी जय हो, वयासी-जय-जय नंदा! जय-जय भहा! भई ते जय हो।' इस प्रकार जय जय शब्द का प्रयोग किया। जाव जय-जय सई पउंजंति॥ प्रव्रज्या और साधना की निष्पत्ति ६. पुब्विं पिणं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व गृहस्थ अवस्था में माणस्सगाओ निहत्थधम्माओ अणत्तरे आहोहिए तं अवधिज्ञान सम्पन्न थे। अभिनिष्क्रमण से पूर्व वर्षीदान चेव सव्वं जाव दायं दाइयाणं परिभाएत्ता जे से दिया। पोष कृष्णा ग्यारस को दिन के पूर्व भाग में विशाल हेमंताणं दोच्चे मासे तच्चे पक्खे-पोसबहुले, तस्स शिविका में बैठे। देव, मनुष्य और असुरों के विशाल समूह णं पोसबहुलस्स एक्कारसी-पक्खेणं पुव्वण्हकाल से वाराणसी नमरी के मध्य से निकले। उत्तम अशोक वृक्ष समयंसि 'विसालाए सिवियाए' सदेवमणुयासुराए वाले आश्रमपद उद्यान के निकट पहुंचे। शिविका से नीचे परिसाए तं चेव सव्वं, नवरं-'वाणारसिं नगरिं उतरे। हाथों से आभूषण, मालाएं और अलंकार उतारे। मझमज्झेणं' निग्गच्छइ, निम्गच्छित्ता जेणेव स्वयं ने अपने हाथ में पंचमुष्टिक लुंचन किया। लोच के आसमपए उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव बाद निराहार अष्टम भक्त (चौविहार तेला) किया। उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे। विशाखा नक्षत्र का योग आते ही देवदूष्य वस्त्र धारण सीयं ठावेइ, ठावेत्ता सीयाओ पच्चोरुहह, किया। अन्य तीन सौ पुरुषों के साथ मुंडित होकर पच्चोरुहित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं अगारता से अनगारता को स्वीकार किया। ओमुयति, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुठियं लोयं करेइ, करेत्ता अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं एगं देवदूसमायाय तिहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए॥ ७. पासे णं अरहा पुरिसादाणीए तेसीइं राइंदियाई निच्चं वोसट्ठकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्प- ज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिक्ख- जोणिया वा अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने । सम्म सहइ 'खमइ तितिक्खइ' अहियासेइ।। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ८३ दिन नित्य शरीर का व्युत्सर्ग व त्याग करते रहे। संयम जीवन में जो कोई दैविक, मानुषिक व तिर्यंचजनित अनुकूल व प्रतिकूल उपसर्ग उत्पन्न हुए, उन्हें निर्भय होकर सम्यक प्रकार से सहन किया। तितिक्षा भाव रखा। क्षमा भाव रखा।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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