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आत्मा का दर्शन
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खण्ड - ३
(३) किल्विषिकी भावना - देवदत्त बुद्ध के चचेरा भाई था । बुद्ध उसका भी हित चाहते थे। किंतु वह ईष्यालु था । बुद्ध को मारने के लिए उसने चट्टान नीचे गिराई ।
गोशालक ने महावीर से बहुत कुछ पाया। शिष्यत्व स्वीकार किया। किंतु इन सबको नकार कर उसने महावीर को भस्म करने के लिए तेजोलब्धि का प्रयोग किया तथा बहुत बुरा-भला कहा।
(४) सिंधु देश में वीतभयपुर का शासक राजा उदाई था । अभीचिकुमार उसका पुत्र था। राजा धार्मिक प्रवृत्ति का और श्रमणोपासक था। एक दिन अपने साधना कक्ष में अवस्थित राजा धर्म जागरण में दिन रात के एक-एक क्षण यापन कर रहा था। जीवन के परम लक्ष्य के प्रति अगाध निष्ठा और संप्राप्त करने की अदम्य भावना बढ़ रही थी। मन ही मन मैं सोचा - यदि भगवान् महावीर का यहां आगमन हो जाए तो मैं अपने लक्ष्य के लिए उनके चरणों में पूर्णतया सब कुछ त्याग कर समर्पित हो जाऊं। राजा के इस दृढ़ निश्चय को भगवान् ने जाना और उनके चरण वीतभय नगर की दिशा में बढ़ चले। लंबी दूरी तय कर भगवान् महावीर आ पहुंचे। राजा को सन्देश मिला। प्रसन्नता का सागर हिलौरें मारने लगा। वाणी सुनी और निश्चय अभिव्यक्त किया।
राज्य के कार्यभार का वाहक अभीचिकुमार था। वह सर्वथा योग्य था किंतु सम्राट उदाई ने उसे राज्य ने देकर अपने भानजे केशिकुमार को दिया। इस घोषणा से सबको बड़ा आघात लगा । अभिचिकुमार भी सन्न रह गया। अपने पिता की भावना को समझ नहीं सका। वे चाहते थे कि पुत्र राज्य - भार में आसक्त होकर स्वयं को न भूले। किंतु यह सब व्यक्ति के विचारों पर निर्भर होता है। पुत्र की इच्छा का सम्मान न कर अपनी भावना को थोपना हितकर नहीं होता। राजा ने किसी की नहीं सुनी और यह कहकर कि मैंने उचित किया है, दीक्षा स्वीकार कर ली।
अभीचिकुमार नगर छोड़कर चम्पा नगरी में कोणिक राजा के पास चला आया । धार्मिक था । धर्माचरण भी बराबर करता था। धार्मिक पर्वों में पूर्णतया धर्माराधन कर सबसे क्षमायाचना करता था अपने पिता को छोड़कर। उदायी नाम से उसके मन में घृणा हो चुकी थी। पिता द्वारा कृतकार्य का स्मरण कर वैराग्नि हृदय में प्रज्वलित हो उठती थी। क्रोध की जड़ें अंतःकरण में इतनी गहरी जम चुकी थी कि वे किसी तरह उखड़ नहीं पाती थीं जैसे दुर्योधन ने कहा था कि मैं धर्म को भी जानता हूं और अधर्म को भी। किंतु धर्म में प्रवृत्त नहीं होता और अधर्म को छोड़ नहीं पाता। मेरे भीतर जो आसुरी भाव है, वह मुझे जैसे नियुक्त करता है वैसा ही करता हूं।
(५) संमोही भावना - जमालि भगवान् महावीर का दामाद था वह भगवान् महावीर के पास पांच सौ व्यक्तियों के साथ दीक्षित हुआ। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना में स्वयं को समर्पित किया श्रुतसागर का पारगामी बना तपः साधना भी दुर्धर्ष थी।
एक दिन वह भगवान् महावीर के पास आया। वंदना की और बोला- 'भगवन्! मैं आपकी आज्ञा पाकर पांच से निर्ग्रयों के साथ जनपद विहार करना चाहता हूं। भगवान् ने सुना और मौन रहे। जमालि ने दूसरी बार तीसरी बार अपनी भावना प्रकट की, किंतु भगवान् मौन रहे । वह वंदना - नमस्कार कर पांच सौ निर्ग्रथों को ले अलग यात्रा पर निकल पड़ा।
श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में ठहरा हुआ था। संयम और तप की साधना चल रही थी। कठिन तप के कारण उसका शरीर रोग से घिर गया। शरीर जलने लगा वेदना से पीड़ित जमालि ने साधुओं से बिछौना करने के लिए कहा। साधु बिछौना करने लगे । कष्ट से एक-एक क्षण भारी हो रहा था। पूछा- बिछौना बिछा दिया या बिछा रहे हो ? श्रमणों ने कहा किया नहीं किया जा रहा है। दूसरी बार कहने पर भी यही उत्तर मिला। जमालि इस उत्तर से चौंक उठा आगमिक आस्था हिल उठी। वह सोचने लगा-भगवान् का सिद्धांत इसके विपरीत है वे कहते हैं क्रियमाणकृत और संस्तीर्णमाण संसृत करना शुरू हुआ, वह कर लिया गया, बिछाना शुरू किया वह बिछा लिया गया- यह सिद्धांत गलत है। कार्य पूर्ण होने पर ही उसे पूर्ण कहना यथार्थ हैं। उसने साधुओं को बुलाया और मानसिक चिंतन कह सुनाया। कुछ एक श्रमणो को यह विचार ठीक लगा और कुछ एक को नहीं । जमालि पर जिनकी श्रद्धा थी वे जमालि के साथ रहे। मिथ्या आग्रह से वह आग्रही हो गया। दूसरों को भी उस मार्ग पर लाने का वह प्रयत्न करता रहा। अनेक लोग उसके वाग्जाल से प्रभावित होकर सत्य मार्ग से च्युत हो गए।