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संशोधि
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४३. वाचः कायस्य कौकुच्यं कन्दर्प विकथा तथा । कृत्वा विस्मापयत्यन्यान, कान्दर्पं तस्य भावना ॥
४४ मन्त्रयोगं भूतिकर्म, प्रयुक्ते अभियोगी भवेत्तस्य भावना
सुखहेतवे । विषयैषिणः ॥
४५. ज्ञानस्य ज्ञानिनो नित्यं संघस्य धर्मसेविनाम् । वदन्नऽवर्णानाप्नोति किल्विषिकीञ्चभावनाम् ॥
क्षमणान्न
प्रसीदतः ।
४६. अव्यवच्छिन्नरोषस्य प्रमादे नानुतपतः आसुरी भावना भवेत् ॥
४७. उन्मार्गदेशको
मार्गनाशकश्चात्मघातकः । मोहयित्वात्मनात्मानं संमोही भावनां व्रजेत् ॥
अ. १५ गृहिधर्मचर्या
वाणी और शरीर की चपलता, कामचेष्टा और विकथा के द्वारा जो दूसरों को विस्मित करता है, उसकी भावना 'कान्दर्पी' भावना कहलाती है।
विषय की गवेषणा करने वाला जो व्यक्ति सुख की प्राप्ति के लिए मंत्र और जादू-टोने का प्रयोग करता है, उसकी भावना 'अभियोगी' भावना कहलाती है।
ज्ञान, ज्ञानवान्, संघ और धार्मिकों का जो अवर्णवाद बोलता है, उसकी भावना 'किल्विषिकी' भावना कहलाती है।
जिसके रोष निरंतर बना रहता है, जो क्षमायाचना करने पर भी प्रसन्न नहीं होता और जो अपनी भूल पर अनुताप नहीं करता, उसकी भावना 'आसुरी' भावना कहलाती है।
जो उन्मार्ग का उपदेश करता है, जो दूसरों को सन्मार्ग से भ्रष्ट करता है, जो आत्महत्या करता है, जो अपनी आत्मा को आत्मा से मोहित करता है, उसकी 'संमोही' भावना कहलाती है।
॥ व्याख्या ||
एडमंड वर्क भुलक्कड़ स्वभाव के थे। एक बार उन्हें किसी छोटे गांव के चर्च में भाषण देना था। समय था सात बजे का पहुंच गये घोड़े पर बैठकर चार बजे वहां कोई नहीं था सिगरेट पीने लगे। घोड़े का मुंह फेर दिया। वापिस घर चले आये दिशा के परिवर्तन होते ही सब बदल गया। जीवन भी ऐसा ही है। जीवन की दिशा बदल जाए तो संपूर्ण जीवन कांतिमय हो जाता है। भावनाओं का अभ्यास इसीलिए विकसित किया गया। मनुष्य भावना के अतिरिक्त कुछ नहीं है । वह जो कुछ करता है, वह सारा अर्जित भावना का प्रतिफल है। भावना सत् और असत् दोनों प्रकार की होती है। ये पांच भावनाएं असत् हैं। इन भावनाओं से वासित व्यक्तियों का अधःपतन होता है वे स्वयं ही अपने हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाते हैं। जीसस ने कहा है- 'तुम अपने मुंह में क्या डालते हो, उससे स्वर्ग का राज्य नहीं मिलेगा। किंतु तुम्हारे मुंह से क्या निकलता है उससे स्वर्ग का राज्य मिलेगा।' जैसा बीज बोओगे वैसा फल मिलेगा। विचारों से व्यक्ति की अंतरिकता अभिव्यक्त होती है। ये पांच भावनाएं व्यक्तियों की विविध असत् चेष्टाओं के आधार पर निर्दिष्ट हैं।
(१) कंदर्पी भावना राबर्ट रिप्ले नामक व्यक्ति के मन में प्रसिद्ध होने का भूत सवार हो गया किसी व्यक्ति से सलाह मांगी। उसने कहा- 'अपने सिर के आधे बाल कटवा लो और अपना नाम लिखा कर घूमो।' हिम्मत की और शहर में घूम गया। दूसरे दिन अखबारों में फोटो आ गया मन का संकोच भी मिट गया। अपने सामने कांच रखकर उल्टा चल अमरीका की यात्रा की। लोगों का मन रंजित करने में प्रसिद्ध हो गया। लोगों का मनोरंजन करने लगा। किंतु अंत में अनुभव हुआ कि सब व्यर्थ गया। उसने लिखा है कि प्रदर्शन में जीवन खो दिया।'
(२) अभियोगी भावना - इस संसार में अंततः सब विनष्ट होता है। सुख भी मिलता हुआ लगता है किंतु पास आते ही दुःख में बदल जाता है। फिर भी मनुष्य वैषयिक सुखों के लिए किस तरह प्रयत्नरत है, यह कम आश्चर्यजनक नहीं है। भर्तृहरि ने कहा है-'मैंने धन की आशंका से जमीन को खोदा, पहाड़ की धातुओं को फूंका, मंत्र की आराधना में संलग्न 'होकर श्मशान में रात्रियां बिताई, राजाओं की सेवा की और समुद्री यात्राएं भी की किंतु फिर भी एक कानी- कोड़ी नहीं मिली हे तृष्णा ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़।'