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________________ संबोधि . २३५ अ.८ : बंध-मोक्षवाद यह आध्यात्मिक है। व्यावहारिक फल यह है कि सम्यग्दर्शी देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयु-बंध नहीं करता। सम्यक्त्व मिथ्यात्व का प्रतिपक्षी है। इसमें आत्मा और सत्य के प्रति आकर्षण होता है। अयथार्थता यहां नहीं रहती। यह सम्यक् को सम्यक् और असम्यक् को असम्यक् देखता है। असम्यक् से यह लगाव नहीं रखता। गीता की सात्त्विक बुद्धि सम्यक्त्व का ही रूप है। जो बुद्धि प्रवृत्ति (कर्म) और निवृत्ति (अकर्म), कर्तव्य और अकर्तव्य, किससे डरना और किससे नहीं डरना; बंध और मोक्ष इनको समझती है वह सात्त्विक बुद्धि है। २०.अनासक्तिः पदार्थेषु, विरतिर्गदिता मया। जागरूका भवेद् वृत्तिः, अप्रमादस्तथात्मनि॥ पदार्थों में जो अनासक्ति होती है, उसे मैंने 'विरति' कहा है। आत्मोपलब्धि के प्रति जो जागरूक वृत्ति होती है, उसे मैं 'अप्रमाद' कहता हूं। २१.अशुभस्यापि योगस्य, त्यागो विरतिरिष्यते। अशुभ योग का त्याग करना भी विरति कहलाता है। वह देशतः सर्वतश्चापि, यथाबलमुरीकृता॥ विरति यथाशक्ति-अंशतः या पूर्णतः स्वीकार की जाती है। ॥ व्याख्या ॥ वैराग्य से व्यक्ति अनासक्त होता है। अनासक्त व्यक्ति का पदार्थों से आकर्षण सहज ही छूट जाता है। वह केवल तत्कालिक आसक्ति ही नहीं छोड़ता किन्तु उसके अंकुर को जला डालता है। त्याग उसका उपाय है। त्यागी व्यक्ति का मन निःस्पृह बन जाता है। वह भविष्य में भी आसक्ति का संकल्प नहीं करता। त्याग के बिना अविरति का मार्ग बन्द नहीं होता। पदार्थों के उपभोग व अनुपभोग का प्रश्न मुख्य नहीं है, मुख्य बात है अविरति की। अविरति उपभोग के बिना भी जीवित रहती है। त्याग उसे जीवित नहीं रहने देता। - मुनि अविरति का सर्वथा त्याग कर देते हैं। उन्हें जो मिले उसी में संतुष्ट रह जाते हैं। लेकिन सभी व्यक्ति मुनि नहीं होते। उनके लिए यथाशक्य अविरति के परिहार का विधान है। वे क्रमशः विरति की ओर बढ़े और अविरति को कम करें। २२. क्रोधो मानं तथा माया, लोभश्चेति कषायकः। . 'एषां निरोध आख्यातोऽकषायः शान्तिसाधनम्॥ क्रोध, मान, माया और लोभ-इन्हें कषाय कहा जाता है। इनके निरोध को मैंने 'अकषाय' कहा है। वह शांति का साधन है। २३. सर्वासाञ्च प्रवृत्तीनां, निरोधोऽयोग इष्यते। अयोगत्वं समापन्ना, विमुक्तिं यान्ति योगिनः॥ सब प्रकार की प्रवृत्तियों के निरोध को 'अयोग' कहता हूं। अयोग अवस्था को प्राप्त योगी मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। २४. पूर्व भवति सम्यक्त्वं, विरतिर्जायते ततः। - अप्रमादोऽकषायश्चाऽयोगो मुक्तिस्ततो ध्रुवम्॥ पहले सम्यक्त्व होता है, फिर विरति होती है। उसके पश्चात् क्रमशः अप्रमाद, अकषाय और अयोग होता है। अयोगावस्था प्राप्त होते ही आत्मा की मुक्ति हो जाती है। २५.आध्यात्मिकविकासस्य, कोटिद्वयमुदाहृतम्। सम्यक'व्रतमप्रमादः, प्रथमा कोटिरिष्यते॥ १. सम्यक्त्व। २. सम्यक्त्व को उपलब्ध होनेवाला चौथे गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है। व्रत को उपलब्ध होनेवाला पांचवें आध्यात्मिक विकास की दो कोटियां बतलाई गई हैं। पहली कोटि में तीन तत्त्व हैं-सम्यक्त्व, व्रत और अप्रमादार अथवा छठे गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है। अप्रमाद दशा को उपलब्ध होने वाला सातवें गुणस्थान का अधिकारी हो जाता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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