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________________ आत्मा का दर्शन २३४ खण्ड-३ १९.तत्त्वे मोक्षे च धर्मे च, यथार्थः प्रत्ययः स्फुटम्। तत्त्व-जीव, अजीव आदि पदार्थ, मोक्ष-जीव की परमात्म सम्यक्त्वं तच्च जायेत, निसर्गादुपदेशतः॥ अवस्था, धर्म-मोक्ष साधन विषयक जो यथार्थ प्रतीति/ यथार्थ श्रद्धा है। उसकी प्राप्ति निसर्ग और अधिगम-दोनों प्रकार से होती है। . ॥ व्याख्या ॥ सम्यग्दर्शन का सिद्धांत समुदायपरक नहीं, आत्मपरक है। आत्मा अमुक मर्यादा तक मोह के परमाणुओं से वियुक्त हो जाती है, तीव्र कषाय-रहित हो जाती है, तब उसमें आत्मदर्शन की प्रवृत्ति का भाव जागृत होता है। यथार्थ में आत्मदर्शन ही सम्यग दर्शन है। सम्यग् दर्शन का व्यावहारिक रूप तत्त्व श्रद्धान है। साधक में कषाय की मंदता होते ही सत्य के प्रति रुचि तीव्र हो जाती है। उसकी गति अतथ्य से तथ्य की ओर, असत्य से सत्य की ओर, अबोधि से बोधि की ओर, अमार्ग से मार्ग की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अक्रिया से क्रिया । की ओर तथा मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर हो जाती है। उसका संकल्प ऊर्ध्वमुखी और आत्मलक्षी हो जाता है।'' उसका संकल्प-सूत्र होता है : मैं अरिहंत की शरण लेता हूं। मैं सिद्ध की शरण लेता हूं। मैं साधु की शरण लेता हूं। मैं केवलिभाषित धर्म की शरण लेता हूं। सम्यग् दर्शन के आचार (पोषण देने वाली प्रवृत्तियां) आठ हैं : १. निःशंकित-सत्य में निश्चित विश्वास। २. निःकांक्षित-मिथ्या विचार के स्वीकार की अरुचि। ३. निर्विचिकित्सा सत्याचरण के फल में विश्वास। ४. अमूढदृष्टि-असत्य और असत्याचरण की महिमा के प्रति अनाकर्षण, अव्यामोह। । ५. उपबृंहण-आत्म-गुण की वृद्धि। ६. स्थिरीकरण-जो सत्य से डगमगा जाएं, उन्हें फिर से सत्य में स्थापित करना। ७. वात्सल्य-सत्य-धर्मों के प्रति सम्मान-भावना, सत्याचरण का सहयोग। ८. प्रभावना-प्रभावक ढंग से सत्य के माहात्म्य का प्रकाशन। सम्यक्त्व के पांच लक्षण : १. शम-कषाय उपशमन। २. संवेग-मोक्ष की अभिलाषा। ३. निर्वेद-संसार से विरक्ति। ४. अनुकम्पा-प्राणीमात्र के प्रति कृपाभाव, सर्वभूत मैत्री, आत्मौपम्य-भाव। ५. आस्तिक्य-आत्मा में निष्ठा। सम्यग्दर्शन का फल : गौतम स्वामी ने पूछा-'भगवन् ! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है?' भगवान ने कहा-'गौतम! दर्शन-सम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अंत होता है। दर्शन सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, वह फिर बुझती नहीं। वह अनुत्तर ज्ञानधारा से आत्मा को भावित किए रहता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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