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संबोधि.
१३. अविरतिर्दुष्प्रवृत्तिः, सुप्रवृत्तिस्त्रिधासवः।
यथाक्रमं निवृत्तिश्च, कर्माऽकर्मविभागतः॥
अविरति, दुष्प्रवृत्ति, सुप्रवृत्ति, निवृत्ति-इनका कर्म और . अकर्म के आधार पर इस प्रकार विभाग होता है-प्रथम तीन कर्म हैं इसलिए उनसे कर्म का आसवन होता है। निवृत्ति अकर्म है इसलिए निरोधात्मक है, संवर है।
१४.अशुभैः पुद्गलैर्जीवं, बध्नीतः प्रथमे उभे।
तृतीयं खलु बध्नाति, शुभैरेभिश्च संसृतिः॥
अविरति और दुष्प्रवृत्ति अशुभ पुद्गलों से और सुप्रवृत्ति शुभ पुद्गलों से जीव को आबद्ध करती है। शुभ और अशुभ पुद्गलों का बंधन ही संसार है।
१५.अशुभांश्च शुभांश्चापि, पुद्गलांस्तत्फलानि च। जो स्थितात्मा शुभ-अशुभ पुद्गल और उनके द्वारा प्राप्त विजहाति स्थितात्माऽसौ, मोक्षं यात्यपुनर्भवम्॥ होने वाले फल का त्याग करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है।
फिर वह कभी जन्म ग्रहण नहीं करता। __ प्रवृत्ति चंचलता है और निवृत्ति स्थिरता। निवृत्ति-दशा में आत्मा अपने स्वरूप में ठहर जाती है। वहां शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं का सर्वथा निरोध हो जाता है। उस स्थिति में पुद्गलों का प्रवेश और उनका फल छूट जाता है। आत्मा मुक्त हो जाती है। मुक्त आत्माओं का जन्म-मरण नहीं होता। १६.अशुभानां पुद्गलानां, प्रवृत्त्या शुभया क्षयः। शुभ प्रवृत्ति से पूर्व अर्जित-बद्ध अशुभ पुद्गलों- पाप-कमों ____ असंयोगः शुभानाञ्च, निवृत्त्या जायते ध्रुवम्॥ का क्षय होता है। निवृत्ति से शुभ-अशुभ-दोनों प्रकार के कर्म
पुद्गलों का संयोग भी रुक जाता है।
१७.निवृत्तिः पूर्णतामेति, शैलेशीञ्च दशां श्रितः। . अप्रकम्पस्तदा योगी, मुक्तो भवति पुद्गलैः॥
जब निवृत्ति पूर्णता को प्राप्त होती है तब योगी शैलेशी दशा को प्राप्त होकर अप्रकंप बनता है और पुद्गलों से मुक्त हो जाता है।
॥ व्याख्या ॥ पूर्ण-निवृत्त स्थिति में पुद्गलों का ग्रहण सर्वथा निरुद्ध हो जाता है। पूर्वबद्ध कर्मों के निर्जरण से आत्मा अपने मौलिक स्वरूप में अवस्थित हो जाती है। अब उसके पास संसार में रहने का कोई कारण नहीं है। इसलिए वह निर्वाण को प्राप्त हो जाती है। जो प्राणी प्रवृत्ति में संलग्न होते हैं उनके लिए शुभाशुभ प्रवृत्तियों का क्रम अविच्छिन्न चलता रहता है। दोनों के मूलोच्छेद के बिना आवागमन का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता। . कर्म के क्षीण होने की प्रक्रिया है-सबसे पहले अविरति और दुष्प्रवृत्ति से व्यक्ति मुक्त बने। बुद्ध की साधना-पद्धति में शील को प्रथम स्थान दिया है। योग में यम और नियम की प्रमुखता है। महावीर महाव्रत और अणुव्रत की बात कहते हैं। सबका सार-सूत्र इतना ही है कि इनके द्वारा असत् प्रवृत्ति के प्रवाह को सबसे पहले अवरुद्ध किया जाए। अशुभ से क्रिया का मुंह मोड़कर उसे शुभ कर्म-प्रवृत्ति से जोड़ा जाए। शुभ प्रवृत्ति का कार्य होगा-शुभ पुद्गलों का अर्जन और बद्ध अशुभ कर्मों का निर्जरण। जैसे कुछ औषधियां स्वास्थ्य लाभ करती हैं और बल-संवर्द्धन भी। ठीक इसी तरह शुभ प्रवृत्ति का कार्य है। शुभ प्रवृत्ति जब फलाकांक्षा और वासना से शून्य होती है तब क्रमशः उससे निवृत्ति का पथ प्रशस्त होता है। अंततोगत्वा पूर्ण निवृत्ति की स्थिति साधक के जीवन में घटित होती है। १८.सम्यक्त्वं विरतिस्तद्वद्, अप्रमादोऽकषायकः। सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग- मैंने
अयोगः पंचरूपेयं, निवृत्तिः कथिता मया॥ पांच प्रकार की निवृत्ति का निरूपण किया है। .