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आत्मा का दर्शन
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खण्ड - ३
संक्षेप में आत्म-विस्मृति प्रमाद है और आत्म-स्मृति अप्रमाद। जिस व्यक्ति को प्रत्येक क्रिया में अपनी आत्मा की स्मृति बनी रहती है, वह अप्रमाद की ओर बढ़ता जाता है।
भगवान् महावीर ने कहा है- 'सव्वतो पमत्तस्स भयं सव्वतो अपमत्तस्स णत्थि भयं' - जो प्रमत्त है उसे सर्वत्र भय ही भय है और जो अप्रमत्त है, वह भय मुक्त है। भय का मूल कारण प्रमाद है।
अन्यत्र एक स्थान में भगवान् महावीर ने प्रमाद को दुःख का मूल माना है। एक बार श्रमणों को एकत्रित कर उन्होंने पूछा- आर्यो! जीव किससे डरते हैं?
गौतम आदि श्रमण निकट आए, वंदना की, नमस्कार किया, विनम्र भाव से बोले भगवन्! हम नहीं जानते, इस प्रश्न का क्या तात्पर्य है देवानुप्रिय को कष्ट न हो तो भगवान् कहें हम भगवान् के पास से यह जानने को उत्सुक हैं। भगवान् बोले- आय! जीव दुःख से डरते हैं।
गौतम ने पूछा- भगवन्, दुःख का कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ? भगवान् गौतम ! दुःख का कर्ता है जीव और उसका कारण है प्रमाद । गौतम! भगवन्। दुःख का अंत कर्ता कौन है और उसका कारण क्या है ? भगवान् गौतम दुःख का अंत कर्ता है जीव और उसका कारण है अप्रमाद
११. आत्मोत्तापकरा वृत्तिः कषायः परिकीर्तितः । कायवाङ्गनसां कर्म योगो भवति देहिनाम् ॥
जो वृत्ति आत्मा को उत्तप्त करती है, उसे 'कषाय' कहा जाता है । मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति को 'योग' कहा जाता है।
॥ व्याख्या ॥
कषाय का अर्थ है-आत्मा की उत्तप्ति वे चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ इनके अवान्तर भेद सोलह होते हैं।
१. अनंतानुबंधी (तीव्रतम ) - क्रोध, मान, माया और लोभ ।
२. अप्रत्याख्यानी (तीव्रतर ) - क्रोध, मान, माया और लोभ ।
३. प्रत्याख्यानी (तीव्र) -क्रोध, मान, माया और लोभ ।
४. संज्वलन (सत्तामात्र ) - क्रोध, मान, माया और लोभ ।
इनका विलय नौवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है और सम्पूर्ण विलय दसवें गुणस्थान में होता है। अनंतानुबंधी कषाय का प्रभुत्व दर्शन मोह के परमाणुओं से जुड़ा होता है। इनके उदयकाल में सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती अप्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में व्रत का प्रवेश नहीं होता। इसके अधिकारी सम्यकुदृष्टि हो सकते हैं, पर व्रती नहीं होते। प्रत्याख्यान कषाय के उदयकाल में चारित्र विकारक पुद्गलों का पूर्ण निरोध नहीं होता। इसका अधिकारी महाव्रती नहीं बन सकता। संज्वलन कषाय का उदय वीतराग चारित्र का बाधक है।
१२. योगः शुभोऽशुभो वापि चतस्रो शुभा ध्रुवम् । निवृत्तिवलिता वृत्तिः, शुभो योगस्तपोमयः ॥
योग शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है और शेष चार सूक्ष्म प्रवृत्तियां अशुभ ही होती हैं निवृत्ति युक्त वर्तन शुभ योग कहलाता है और वह उप-रूप होता है।
|| व्याख्या ||
आत्मा शरीर से मुक्त नहीं है इसलिए वह प्रवृत्ति करती है। स्वतंत्र आत्मा में शरीरजन्य प्रवृत्ति नहीं होती । जहां प्रवृत्ति है वहां बंध है। प्रवृत्ति के शुभ और अशुभ दो रूप हैं। दोनों ही प्रवृत्तियों से आत्मा पुद्गलों को ग्रहण करती है और अपने साथ एकीभूत करती है। वे पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। मोक्ष है पुद्गलों का सर्वथा क्षय । वह निवृत्त अवस्था है। आत्मा के सूक्ष्म स्पन्दन का अनुमान करना कठिन है। बाहरी चेष्टाओं से उसकी प्रतिक्रिया जानी जा सकती है। अंतर्मन की क्रिया आकार, प्रकार, संकेत, गति, चेष्टा, भाषण आदि से जानी जा सकती है तो सूक्ष्म अध्ययन से अवचेतन मन का परिज्ञान क्यों नहीं हो सकता? समस्त प्रवृत्ति के हेतु हैं- शरीर, वाणी और मन इनकी प्रवृत्ति को योग कहा जाता हैं। योग स्थूल है, स्पष्ट है और सूक्ष्म प्रवृत्तियों का परिचायक भी है। आत्मा अमूर्त है अतः इन स्थूल प्रवृत्तियों से परिज्ञात नहीं हो सकती।