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________________ संबोधि २३१ अ.८: बंध-मोक्षवाद ॥ व्याख्या ॥ .. एक चक्षुष्मान् वह होता है, जो रूप और संस्थान को ज्ञेयदृष्टि से देखता है। दूसरा चक्षुष्मान् वह होता है, जो वस्तु की ज्ञेय, हेय और उपादेय दशा को विपरीत दृष्टि से देखता है। तीसरा उसे अविपरीत दृष्टि से देखता है। पहला स्थूलदर्शन है, दूसरा बहिर्दर्शन और तीसरा अंतर्-दर्शन। स्थूल-दर्शन जगत् का व्यवहार है, केवल वस्तु की ज्ञेय दशा से संबंधित है। अगले दोनों का आधार मुख्य रूप से वस्तु की हेय और उपादेय दशा है। अंतर्-दर्शन जब मोह के पुद्गलों से ढंका होता है तब वह मिथ्यादर्शन कहलाता है। जब मोह का आवरण टूट जाता है तब सम्यक्त्व का लाभ होता है। मिथ्यात्व का अभिव्यक्त रूप तत्त्व-श्रद्धा का विपर्यय है। विपरीत तत्त्व-श्रद्धा के दस रूप बनते हैं : १. अधर्म में धर्म संज्ञा। ६. जीव में अजीव संज्ञा। २. धर्म में अधर्म संज्ञा। ७. असाधु में साधु संज्ञा। ३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा। . ८. साधु में असाधु संज्ञा। ४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा। ९. अमुक्त में मुक्त संज्ञा। ५. अजीव में जीव संज्ञा। १०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा। इसी प्रकार सम्यक्-तत्त्व-श्रद्धा के भी दस रूप बनते हैं : १. अधर्म में अधर्म संज्ञा। ६. जीव में जीव संज्ञा। २. धर्म में धर्म संज्ञा। ७. असाधु में असाधु संज्ञा। ३. अमार्ग में अमार्ग संज्ञा। ८. साधु में साधु संज्ञा। ४. मार्ग में मार्ग संज्ञा। ९. अमुक्त में अमुक्त संज्ञा। . . ५. अजीव में अजीव संज्ञा। . १०. मुक्त में मुक्त संज्ञा। - यह साधक, साधना और साध्य का विवेक है। जीव-अजीव की यथार्थ श्रद्धा के बिना साध्य की जिज्ञासा ही नहीं होती। आत्मवादी ही परमात्मा बनने का प्रयत्न करेगा, अनात्मवादी नहीं। इस दृष्टि से जीव-अजीव का संज्ञान साध्य के आधार का विवेक है। साधु-असाधु का संज्ञान साधक की दशा का विवेक है। धर्म-अधर्म, मार्ग-अमार्ग का संज्ञान साधना का विवेक है। मुक्त-अमुक्त का संज्ञान साध्य-असाध्य का विवेक है। सिद्धांत की भाषा में जब तक दर्शनमोह के तीन प्रकार-सम्यक्त्व-मोह, मिथ्यात्वमोह और सम्यक्-मिथ्यात्व-मोह और चारित्र-मोह के प्रथम चतुष्क-अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का उदय रहता है तब तक मिथ्यात्व का अस्तित्व रहता है और जब इन सात कर्म-प्रकृत्तियों का क्षय-क्षयोपशम होता है, तब सम्यक्त्व (क्षायिक या क्षायोपशमिक) की प्राप्ति होती है। मिथ्यात्वी विपरीत मान्यता से दीर्घसंसारी हो जाता है। उसे प्रकाश की प्राप्ति नहीं होती। वह जड़-जगत् को अपना आकर्षण केन्द्र बना लेता है। मिथ्यात्व की तुलना गीता (१८/३२) के तमोगुण से होती है। वहां कहा गया है कि वह बुद्धि तामसी है जो तम से व्याप्त होकर अधर्म को धर्म समझती है और सभी बातों को विपरीत समझती है। - बुद्ध की भाषा में वह दृष्टास्रव है जो यथार्थ में अयथार्थ का दर्शन करता है और अयथार्थ में यथार्थ का। .१०.आसक्तिश्च पदार्थेषु, व्यक्ताऽव्यक्ताव्रतात्मिका। पदार्थों में जो व्यक्त और अव्यक्त आसक्ति होती है, वह अनुत्साहः स्वात्मरूपे, प्रमादः कथितो मया॥ 'अविरति' कहलाती है। अपने आत्म-विकास के प्रति जो अनुत्साह होता है, उसको मैंने 'प्रमाद' कहा है। ॥ व्याख्या ॥ अविरति का क्षेत्र जैसे व्यापक है वैसे प्रमाद का भी व्यापक है। आत्म-स्वभाव को अपुष्ट करने वाली क्रिया का समावेश इसी में है। जब तक आत्मा की विस्मृति होती है और पर-पदार्थों की स्मृति होती है तब तक प्रमाद का हाथ बलवान् होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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