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आत्मा का दर्शन
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कषाय - आत्मा की आंतरिक उत्तप्ति ।
योग - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति ।
प्रवृत्ति के पांच प्रकार
प्रवृत्ति का पहला प्रकार है-मिथ्यात्व यह सबसे खतरनाक है। इसमें व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता। 'स्व' और 'पर' का भेद नहीं होता । बुद्ध की भाषा में यह 'अविद्या' आस्रव है। पतंजलि इसे अविद्या कहते हैं। अविद्या या मिथ्यात्व का उन्मूलन करना ही साधना का लक्ष्य है। धर्म की दिशा में यह प्रथम पदन्यास है। मिथ्यात्व की विद्यमानता मैं न तो तत्वों के प्रति श्रद्धा जागृत होती है और न सत्य के प्रति आकर्षण ।
खण्ड-३
प्रवृत्ति का दूसरा प्रकार है - विरति । व्यक्ति का दर्शन सम्यग् नहीं होता है तब पदार्थों के प्रति आकर्षण न होने की बात कैसे फलित हो सकती है ? ऊपर-ऊपर विरति पल सकती है किंतु पदार्थों का मोह नहीं छूटता। एक पदार्थ या व्यक्ति से मोह छूटता है तो दूसरे के प्रति अधिक मोह जागृत हो जाता है अविरति आंतरिक लालसा है। सत्य की शोध में बाहर से विकर्षण भी अपेक्षित है। किन्तु इसके साथ-साथ आंतरिक आकर्षण का क्रम चलना नितांत स्पृहणीय है। अन्यथा वह विराग जीवन्त नहीं हो सकता।
प्रवृत्ति का तीसरा प्रकार है-प्रमाद यह व्यक्ति को जागृत नहीं होने देता। स्व-विस्मृति में इसका बहुत बड़ा हाथ होता है। इसके बहुविध आवरण हैं। शराब, नींद, विकथा (जो बातें स्वयं से दूर ले जाती है), इन्द्रिय-विषय और कषाय-प्रमाद को पुष्ट करने में ये पांच महत्वपूर्ण सहयोगी हैं। इन अवस्थाओं में जीने का अर्थ है-स्वयं के प्रति अनुत्साह । सामान्यतया मनुष्य इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है। ये वृत्तियां आदमी को भीतर झांकने नहीं देती ।
प्रवृत्ति का चौथा प्रकार है- कषाय । कषाय प्रमाद के अंतर्गत होने पर भी प्रवृत्ति में उसका स्वतंत्र उल्लेख है। वह इसलिए कि आत्मा की क्रमिक अवस्थाओं में प्रमाद के छूट जाने पर भी वह आगे तक विद्यमान रहता है उसके सूक्ष्मांशों के प्रति सचेत हुए बिना साधक को पुनः नीचे लौटना पड़ता है। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये कषाय के मुख्य अंग हैं। आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि में ये बाधक हैं।
प्रवृत्ति का पांचवां प्रकार है- योग। योग का अर्थ है- मन, वाणी और काया की चंचलता । मनुष्य का बाहरी रूप जो दिखाई देता है, वह सिर्फ बाहरी नहीं है, भीतर का प्रतिबिंब है। भीतर घटना घटती है और बाहर उसका विस्तार हो जाता है। मिथ्यात्व आदि आंतरिक और सूक्ष्म वृत्तियां हैं। सागर में बुदबुदे की भांति ये भीतरी मन में उठती हैं और बाहर आकर छूट जाती हैं। मन सूक्ष्म योग है, वाणी स्थूल और काया स्थूलतम । वाणी और शरीर कार्य है, मन कारण है और भी गहराई से देखा जाए तो मन भी कार्य है क्योंकि वह स्वतंत्र नहीं है। उसमें भी जो स्पंदन होता है, उसका स्रोत अन्यत्र है। समस्त प्रवृत्तियों का मूल कारण है- कार्मण शरीर-सूक्ष्म शरीर । मिथ्यात्व आदि प्रवृत्तियों का स्रोत है वह । कर्म से प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति से क्रिया, क्रिया से फिर कर्म-योग्य पुद्गलों का ग्रहण । इस दुश्चक्र से मुक्त होने के लिए निवृत्ति का दर्शन है।
८. अतत्त्वे तत्त्वसंज्ञानं, अमोक्षे मोक्षधीस्तथा । अधर्मे धर्मसंज्ञानं, मिथ्यात्वं द्विविधञ्च तत् ॥
९. अभिग्रहिकमाख्यातं, असतत्त्वे दुराग्रहः । अनाभिग्रहिकं वत्स! अज्ञानाज्जायतेऽङ्गिनाम् ॥
तत्त्व में तत्त्व का संज्ञान करना, अमोक्ष में मोक्ष की बुद्धि करना और अधर्म में धर्म का संज्ञान करना मिथ्यात्व कहलाता है। उसके दो प्रकार हैं-आभिग्रहिक और अनाभिग्राहिक ।
वत्स! अयधार्थं तत्त्व में यथार्थता का मिथ्या आग्रह होना अभिग्रहिक मिध्यात्व कहलाता है और जो यथार्थ तत्त्व का ज्ञान नहीं होता, वह अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व कहलाता है। आभिग्रहिक आग्रहपूर्वक होता है और अनाभिग्राहिक अज्ञानवश होता है।
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