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संबोधि
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अ.८ : बंध-मोक्षवाद ४. प्रवृत्तिरानवः प्रोक्तो, निवृत्तिः संवरस्तथा। प्रवृत्ति आस्रव है और निवृत्ति संवर। प्रवृत्ति के पांच प्रकार प्रवृत्तिः पञ्चधा ज्ञेया, निवृत्तिश्चापि पञ्चधा॥ हैं और निवृत्ति के भी पांच प्रकार हैं।
॥ व्याख्या ॥ महावीर दुःख और दुःख मुक्ति का छोटा सा सूत्र बता रहे हैं। वे कहते हैं-'कामना दुःख है। कामना के पार चले जाओ, दुःख से छूट जाओगे-'कामे कमाहि, कमियं खु दुक्खं।' प्रवृत्ति का जन्म इच्छा-राग-द्वेष से होता है। यही बंधन है। जब उन पुद्गलों की अवस्थिति संपन्न होती है तब वे सुख-दुःख के रूप में प्रकट होते हैं। और फिर मनुष्य तदनुरूप प्रवृत्ति में संलग्न हो जाते हैं। इस भवचक्र का उन्मूलन होता है अप्रवृत्ति-निवृत्ति से। जिसे दुःख-मुक्ति प्रिय है उसे निवृत्ति का प्रयोग भी सीखना चाहिए।
प्रवृत्ति के पांच प्रकार हैं और निवृत्ति के भी पांच प्रकार हैं। प्रवृत्ति बांधती है और निवृत्तिमुक्त करती है। प्रवृत्ति मनुष्य की चिरसंगिनी है। उससे छूटना सहज नहीं है, किन्तु बिना छूटे बंधन-मुक्ति भी संभव नहीं है। साधना का लक्ष्य ही है-दुःख से मुक्त होना, निर्वाण को प्राप्त करना। उसमें बाधक हैं-ये पांच प्रवृत्तियां। ये पांचों ही तमोमयी हैं। इनसे जकड़ा हुआ व्यक्ति सत्य का दर्शन नहीं कर सकता। वह अनवरत बेहोशी का जीवन जीता है। जिसे कभी यह बोध भी नहीं होता कि मेरा जन्म क्यों है ? मैं कौन हूं? एक विचारक ने कहा है-'यदि विश्वविद्यालय लड़कों को मनुष्य नहीं बना सकते तो उनके अस्तित्व का कोई लाभ नहीं है। लड़के-लड़कियों को पहले यह मालूम होना चाहिए कि वे क्या हैं ? और किस उद्देश्य के लिए उनको जीना है ?
और समझ लेनी चाहिए कि प्रवृत्ति मात्र बाधक नहीं है। निवृत्ति के पथ पर व्यक्ति जब आरूढ़ होता है तब उससे पहले भी प्रवृत्ति चलती है, किन्तु वह बाधक नहीं बनती क्योंकि उस प्रवृत्ति की दिशा भटकाब वाली नहीं है। वह निवृत्ति के अभिमुख है। उसकी अंतिम परिणति निवृत्ति है। जिस प्रवृत्ति का प्रवाह निवृत्ति के अभिमुख नहीं होता वह प्रवृत्ति मनुष्य को स्वयं से निरंतर दूर ले जाती है। स्वयं से दूर होना ' ही संसार है। ५. मिथ्यात्वमविरतिश्च, प्रमादश्च सकषायकः। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-ये चार सूक्ष्मात्माऽध्यवसायस्य, स्पन्दरूपाः प्रवृत्तयः॥ सूक्ष्म-अव्यक्त प्रवृत्तियां हैं। इनमें आत्मा के अध्यवसायों का
सूक्ष्म स्पंदन होता है।
६. योगः स्थूला स्थूलबुद्धिगम्या प्रवृत्तिरिष्यते। . स्वतंत्रो व्यक्तिहेतुश्च, ह्यव्यक्तानां चतसृणाम्॥
योग स्थूल व्यक्त प्रवृत्ति है। वह स्थूल बुद्धि से जानी जा सकती है। वह स्वतंत्र भी है और पूर्वोक्त चारों अव्यक्त सूक्ष्म प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का हेतु भी है।
७. मिथ्यात्वमविरतिर्वा, प्रमादः सकषायकः। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-इन चार आस्रवों व्यक्तरूपो भवेद् योगो, मानसो वाचिकाउङ्गिकौ॥ को अभिव्यक्त करने वाला योग भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद
और कषाय कहलाता है, जैसे-योगरूप मिथ्यात्व, योगरूप अविरति, योगरूप प्रमाद और योगरूप कषाय। वह अभिव्यक्ति
मानसिक, वाचिक और कायिक-तीनों प्रकार की होती है।
॥ व्याख्या ॥ मिथ्यात्व-विपरीत श्रद्धा, तत्व के प्रति अरुचि। अविरति-पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा। प्रमाद-धर्माचरण के प्रति अनुत्साह