________________
आत्मा का दर्शन
४६. एवं वृत्तो नरिंदो सो सुसंभंतो सुविम्हिओ । वयणं अस्सुयपुव्वं साहुणा विम्हयन्निओ ॥
४७. अस्सा हत्थी मणुस्सा मे पुरं अन्तेउरं च मे । भुंजामि माणुसे भोगे आणाइस्सरियं च मे ॥
४८. एरिसे संपयग्गम्मि सव्वकामसमप्पिए । कहं अणाहो भवइ ? माहु भंते! मुसं वए ॥
४९. न तुमं जाणे अणाहस्स अत्थं पोत्थं व पत्थिवा! जहा अणाहो भवई सणाहो वा नराहिवा !
५०. सुणेह मे महारायं ! अव्वक्खित्तेण चेयसा । जहा अणाहो भवई जहा मे य पवत्तियं ॥
५१. कोसंबी
नाम नयरी पुराणपुरभेयणी । तत्थ आसी पिया मज्झ पभूयधणसंचओ ॥
५२. पढमे वए महाराय ! अउला मे अच्छिवेयणा । अहोत्था विउलो दाहो ! सव्वंगेसु य पत्थिवा ॥
५३. सत्थं
जहा परमतिक्खं सरीरविवरंतरे। पवेसेज्ज अरी कुद्धो एवं मे अच्छिवेयणा ॥
५४. तियं मे अंतरिच्छं च उत्तमंगं च पीडई । इन्दासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ॥
५९६
५५. उवट्ठिया मे आयरिया विज्जामंततिगिच्छ्गा । अबीया सत्थकुसला मंतमूलविसारया ॥
खण्ड - ४
श्रेणिक पहले ही विस्मित बना हुआ था। साधु के द्वारा - तू अनाथ है-ऐसा अश्रुतपूर्व वचन सुनकर वह अत्यंत व्याकुल और अत्यंत आश्चर्यमग्न हो गया।
मेरे पास हाथी और घोड़े हैं। नगर और अंतःपुर हैं। मैं मनुष्य संबंधी भोगों को भोग रहा हूं। आज्ञा और ऐश्वर्य मेरे पास हैं।
जिसने मुझे सब कामभोग समर्पित किए हैं, वैसी उत्कृष्ट सम्पदा मेरे पास होते हुए भी मैं अनाथ कैसे हूं? भदंत ! असत्य मत बोलो।
हे पार्थिव ! तू अनाथ शब्द का अर्थ और उसकी उत्पत्ति (मैंने तुझे अनाथ क्यों कहा) नहीं जानता । इसलिए जैसे अनाथ या सनाथ होता है, वैसे नहीं जानता ।
महाराज ! तू अव्याकुल चित्त से सुन-जैसे कोई पुरुष अनाथ होता है और जिस रूप में उसका मैंने प्रयोग किया है।
प्राचीन नगरों में असाधारण, सुन्दर कोशाम्बी नाम की नगरी है। वहां मेरे पिता रहते हैं। उनके पास प्रचुर धन का संचय है।
महाराज ! प्रथम वय ( यौवन) में मेरी आंखों में असाधारण वेदना उत्पन्न हुई। पार्थिव ! मेरा समूचा शरीर पीड़ा देने वाली जलन से जल उठा। .
जैसे कुपित बना हुआ शत्रु शरीर के छेदों में अत्यंत तीखे शस्त्रों को घुसेड़ता है, उसी प्रकार मेरी आंखों में वेदना हो रही थी।
मेरे कटि, हृदय और मस्तिष्क में परम दारुण वेदना हो रही थी, जैसे इन्द्र का वज्र लगने से घोर वेदना होती है।
विद्या और मंत्र के द्वारा चिकित्सा करने वाले मंत्र और औषधियों के विशारद, अद्वितीय, शास्त्रकुशल