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प्रायोगिक दर्शन
३७. तत्थ सो पासइ साहुं संजयं निसन्नं रुक्खमूलम्मि सुकुमालं
सुसमाहियं । सुहोइयं ॥
३८. तस्स रूवं तु पासित्ता राइणो तम्मि संजए । अच्चन्तपरमो आसी अउलो रूवविम्हओ ॥
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३९. अहो ! वण्णो अहो ! रूवं अहो ! अज्जस्स सोमया । अहो ! खन्ती अहो ! मुत्ती अहो ! भोगे असंगया ॥
४०. तस्स पाए उ. वंदित्ता काऊण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने पंजली
पडिपुच्छई ॥
४१. तरुणों सि अज्जो ! पव्वइओ
वओि सिसामण्णे
भोगकालम्मि संजया ।
मट्ठे सुमिता ॥
४२. अणाहो मि महाराया! नाहो मज्झ न विज्जई | अणुकम्पगं सुहिं वावि कंचि नाभिसमेमहं ||
४३. तओ सो पहसिओ राया सेणिओ मगहाहिवो । एवं ते इड्ढिमंतस्स कहं नाहो न विज्जई ?
४४. होमि नाहो भयंताणं भोगे भुंजाहि मित्तनाईपरिवुडो माणुस्सं खु
संजया । सुदुल्लाहं ॥
४५. अप्पणा वि अणाहो सि सेणिया! मगहाहिवा । अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि ?
अ. १२ : आत्मवाद
प्रकार के कुसुमों से पूर्णतः ढका हुआ और नन्दनवन के
समान था ।
वहां राजा ने संयत, मानसिक समाधि से सम्पन्न, वृक्ष के पास बैठे हुए सुकुमार और सुख भोगने योग्य साधु को देखा।
उसके रूप को देखकर राजा उस संयत के प्रति आकृष्ट हुआ और उसे अत्यंत उत्कृष्ट और अतुलनीय विस्मय हुआ ।
आश्चर्य! कैसा वर्ण और कैसा रूप है। आश्चर्य ! आर्य की कैसी सौम्यता है। आश्चर्य! कैसी क्षमा और निर्लोभता है। आश्चर्य! भोगों में कैसी अनासक्ति है।
उसके चरणों में नमस्कार और प्रदक्षिणा कर न अतिदूर न अतिनिकट रह राजा ने हाथ जोड़कर पूछा
आर्य! अभी तुम तरुण हो । संयत! तुम भोगकाल में प्रव्रजित हुए हो, श्रामण्य के लिए उपस्थित हुए हो, इसका क्या प्रयोजन है? मैं सुनना चाहता हूं।
महाराज! मैं अनाथ हूं। मेरा कोई नाथ नहीं है। मुझ पर अनुकंपा करनेवाला या मित्र कोई नहीं पा रहा हूं।
यह सुनकर मगधाधिपति राजा श्रेणिक जोर से हंसा और उसने कहा- तुम ऐसे सहज सौभाग्यशाली हो, फिर कोई तुम्हारा नाथ कैसे नहीं होगा ?
हे भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूं। संयत! मित्र और ज्ञातियों से परिवृत होकर विषयों का भोग करो। यह मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है।
मगध के अधिपति श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो ! स्वयं अनाथ होते हुए भी तुम दूसरों के नाथ कैसे होओगे ?