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________________ ६५५ ३४. णिच्छयववहारणया, मूलभेया णयाण सव्वाणं । च्छियसाहणहे, पज्जयदव्वत्थियं मुणह ॥ ३५. जो सिय भेदुवयारं, धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणियो, विवरीओ णिच्छयो होइ ॥ ३६. ववहारेणुवदिस्सह, णातिस्स चरित्तं दंसणं णाणं । णविणाणं ण चरित्तं, न दंसणं जाणगो सुद्धो ॥ ३७. एवं ववहारणओ, पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण । णिच्छयणयासिदा पुण, मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥ ३८. जह ण वि सक्कमणज्जो, तह ववहारेण विणा, अज्जभासं विणा उगाहेउं । परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ ३९. ववहारोऽभूत्थो भूत्थो देसिदो दु सुखणओ । · भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥ ४०. निच्छयमवलंबता, निच्छयतो निच्छयं अजाणता । नासंति चरण- करणं बाहिर-करणालसा केई ॥ ४९. सुद्धो सुद्धादेसो, णायव्वो परमभाव-दरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण, जे दु अपरमे ठिदा भावे ॥ अ. १ : ज्योतिर्मुख निश्चय और व्यवहार-ये दो नय ही समस्त नयों के मूल हैं तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय निश्चय के साधन में हेतु हैं। जो एक अखंड वस्तु के विविध धर्मों में कथंचित् (किसी अपेक्षा) भेद का उपचार करता है वह व्यवहार नय है। जो ऐसा नहीं करता अर्थात् अखंड पदार्थ का अनुभव अखंड रूप से करता है, वह निश्चय नय है। व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि ज्ञानी के चारित्र होता है, दर्शन होता है और ज्ञान होता है। किन्तु निश्चयनय से उसके न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है। ज्ञानी तो शुद्ध ज्ञायक है। इस प्रकार आत्माश्रित निश्चयनय के द्वारा पराश्रित व्यवहारनय का प्रतिषेध किया जाता है। निश्चयनय का आश्रय लेनेवाले मुनिजन ही निर्वाण प्राप्त करते हैं। जैसे अनार्य पुरुष को अनार्य भाषा के बिना समझाना संभव नहीं है, वैसे ही व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश करना संभव नहीं है। व्यवहार अभूतार्थ (असत्यार्थ) है और निश्चय भूतार्थ (सत्यार्थ) है। भूतार्थ का आश्रय लेनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि होता है। निश्चय का अवलंबन करनेवाले कुछ जीव निश्चय को निश्चय से न जानने के कारण बाह्य आचरण में आलसी या स्वच्छन्द होकर चरण-करण (आचार-क्रिया) का नाश कर देते हैं। (ऐसे लोगों के लिए आचार्य कहते हैं कि) परमभाव के द्रष्टा जीवों के द्वारा शुद्ध वस्तु का कथन करनेवाला शुद्धनय (निश्चय नय) ही ज्ञातव्य है । किन्तु अपरमभाव में स्थित जनों को व्यवहारनय के द्वारा ही उपदेश करना उचित है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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