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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
२६.रयणत्तयमेव गणं,गच्छं गमणस्स मोक्खमग्णस्स।
संघो गुण संघादो, समयो खल णिम्मलो अप्पा॥
रत्नत्रय ही 'गण' है। मोक्षमार्ग में गमन ही 'गच्छ' है। गण का समूह ही 'संघ' है तथा निर्मल आत्मा ही समय है।
२७.आसासो वीसासो, सीयघरसमो य होइ मा भाहि।
अम्मापितिसमाणो, संघो सरणं. तु सव्वेसिं॥
संघ भयभीत व्यक्तियों के लिए आश्वासन, निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतगृहतुल्य, अविषमदर्शी होने के कारण मातापितातुल्य तथा सब प्राणियों के लिए शरणभूत होता है, इसलिए तुम संघ से मत डरो।
२८.नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य।
धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति॥
संघस्थित साधु ज्ञान का भागी (अधिकारी) होता है, दर्शन व चारित्र में विशेषरूप से स्थिर होता है। वे धन्य है जो जीवन-पर्यन्त गुरुकुलवास नहीं छोड़ते। '
२९.जस्स गुरुम्मि न भत्ती,
नय बहुमाणो न गउरवं न भयं। न वि लज्जा न वि नेहो,
गुरुकुलवासेण किं तस्स?
जिसमें गुरु के प्रति न भक्ति है न बहुमान है, न गौरव है, न भय (अनुशासन) है, न लज्जा है तथा न स्नेह है, उसका गुरुकुलवास में रहने का क्या अर्थ है ?
३०-३१. कम्मरयजलोहविणिग्गयस्स,
सुयरयणदीहनालस्स। पंचमहव्वयथिरकण्णियस्स,
गुणकेसरालस्स।
संघ कमलवत् है। (क्योंकि) संघ कर्मरजरूपी जलराशि से कमल की तरह ही.ऊपर तथा अलिप्त रहता है। श्रुतरत्न (ज्ञान या आगम) ही उसकी दीर्घनाल है। पंच महाव्रत ही उसकी स्थिर कर्णिका है तथा उत्तरगुण ही उसकी मध्यवर्ती केसर है। जिसे श्रावकजनरूपी भ्रमर सदा घेरे रहते हैं, जो जिनेश्वरदेवरूपी सूर्य के तेज से प्रबुद्ध होता है तथा जिसके श्रमणगणरूपी सहस्रपत्र है, उस संघरूपी कमल का कल्याण हो।
सावगजणमहुयरपरिखुडस्स, जिणसूरतेयबुद्धस्स। संघपउमस्स भई, समणगणसहस्सपत्तस्स॥
(युग्मम्)
निरूपण सूत्र
निरूपण सूत्र
३२.जो ण पमाणणयेहिं, णिक्खेवेणं णिरिक्खदे अत्थं।
तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं च पडिहादि॥
जो प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का बोध नहीं करता, उसे अयुक्त युक्त तथा युक्त अयुक्त प्रतीत होता है।
३३.णाणं होदि पमाणं,
णओ वि णादुस्स हिदयभावत्थो। णिक्खेओ वि उवाओ,
जुत्तीए अत्थपडिगहणं॥
ज्ञान प्रमाण है। ज्ञाता का हृदयगत अभिप्राय नय है। जानने के उपायों को निक्षेप कहते हैं। इस तरह युक्तिपूर्वक अर्थ ग्रहण करना चाहिए।.